एक स्त्री यदि शिष्य हो जाये, तो उससे श्रेष्ठ शिष्य खोज पाना बहुत ही मुश्किल है। ज्ञान हो या कोई वस्तु प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का शिष्य हो जाना बहुत महत्वपूर्ण है। एक शिष्यत्व के मामले में कोई पुरुष स्त्री शिष्य का भाव के सापेक्ष मुकाबला नहीं कर सकता है। क्योंकि शिष्यत्व भाव में जो सबसे महत्वपूर्ण अवयव होता है वो है समर्पण और समर्पण की जो क्षमता एक स्त्री में होती है, वह किसी पुरुष में नहीं हो सकती है। जिस संपूर्ण भाव से वह किसी भी बात को अंगीकार कर लेती है, ग्रहण कर लेती है, उस तरह से कोई पुरुष कभी अंगीकार नहीं कर पाता है, ग्रहण नहीं कर पाता है।
एक बार जब कोई स्त्री स्वीकार कर लेती है, तो फिर उसमें किंचित मात्र भी कोई संदेह नहीं रह जाता है, फिर उसके भीतर कोई विवाद नहीं होता है। एक स्त्री की आस्था परिपूर्ण होती है। एक बार यदि वह किसी विचार को स्वीकार कर लेती है, तो वह विचार एक प्रकार से उसके गर्भ में प्रवेश कर जाता है। वह उस विचार को भी, एक बीज की भांति, गर्भ में धारण करके अपने भीतर उसका पालन पोषण करने लगती है।
वहीं दूसरी ओर एक पुरुष यदि किसी बात को स्वीकार कर भी लेता है, तो भी बड़ी जदबोजहद करता है, बार बार बड़े संदेह खड़े करने लगता है। बड़े बड़े प्रश्न उठाता है और यदि झुकता भी है, तो यही कह कर के झुकता है कि अर्धमन से स्वीकार कर रहा हूँ, पूरे से नहीं। शिष्यत्व के जिस शिखर को स्त्रियां प्राप्त कर सकती हैं, पुरुष नहीं कर पाते है। क्योंकि एकरूपता के जिस स्तर को स्त्रियां प्राप्त कर सकती हैं, पुरुष नहीं कर सकते है और न ही स्वीकार्यता के, न ही समर्पण के। चूंकि स्त्रियां बहुत ही अदभुत, गहन, और श्रेष्ठतम रूप से, शिष्य बन सकती हैं इसीलिए वह श्रेष्ठ गुरु नहीं बन सकतीं है, क्योंकि एक शिष्य का जो गुण है, वही गुण एक गुरु के लिए अवरोध है।
एक गुरु का तो प्रमुख कार्य ही आक्रमण है, वह तो तोड़ेगा, मिटाएगा, नष्ट करेगा। क्योंकि पुराने को बिना मिटाए, तो नए का जन्म हो ही नहीं सकता है। अतः गुरु तो अनिवार्य रूप से विध्वंसक ही है; क्योंकि विध्वंस के बाद ही तो वह नवसृजन लेकर आएगा। वह यदि मृत्यु न ला सकेगा, तो नया जीवन ही न दे सकेगा।
एक स्त्री की वह श्रेष्ठता नहीं है। स्त्री आक्रमण नहीं कर सकती है, समर्पण कर सकती है। वही समर्पण उसे शिष्यत्व में बहुत ऊंचाई पर लेकर जाता है।
लेकिन स्त्री कितनी ही बड़ी शिष्या क्यों न हो जाए, वह गुरु नहीं बन पाती है। उसमें एक शिष्य होने का जो गुणधर्म है, जो खूबी है, वही बाधा बनती है उसके गुरुत्व को प्राप्त करने में।