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क्यों हुआ श्रीगणेश का शिरश्छेदन

 

श्रीगणेश ग्रहाधिराज श्रीकृष्ण के अंश से पार्वतीनन्दन के रुप में अवतरित हुए थे, फिर भी उनका शिरश्छेदन श्रीकृष्ण-भक्त शनि की दृष्टि से कैसे हो गया ? इस सम्बन्ध में ब्रह्म-वैवर्त्त-पुराण के गणपति-खण्ड के १८वें अध्याय में एक कथा है -
सूर्यदेव ने भगवान् शिव के भक्त शिवमाली और सुमाली के उत्पातों के कारण उनका वध कर दिया । इससे अपने भक्तों से प्रेम करने वाले देवाधिदेव महादेव सूर्यदेव पर अत्यन्त कुपित हुए । उन्होंने अपने महाशक्तिशाली त्रिशूल से सूर्यदेव पर प्रहार कर दिया । इस असहनीय आघात से सूर्यदेव मूर्च्छित होकर धराशायी हो गए । महर्षि कश्यप ने जब अपने पुत्र सूर्य की आँखें ऊपर चढ़ी हुई देखी, तो उन्हें अपने सीने से लगाकर विलाप करने लगे । साथ ही, सूर्य के धराशायी होते ही सम्पूर्ण जगत् में अंधकार छा गया । चारों ओर हाहाकार मच गया । उसी समय लोक-पितामह ब्रह्माजी के पौत्र महर्षि कश्यप ने महादेव को शाप दिया, “आज तुम्हारे त्रिशूल से मेरे पुत्र का वक्ष विदीर्ण हुआ है, एक दिन तुम्हारे प्रिय पुत्र का भी शिरश्छेदन होगा ।”
इस बीच, भगवान् आशुतोष का क्रोध शान्त हो गया, तो उन्होंने ब्रह्मज्ञान से सूर्य को पुनर्जीवित कर दिया ।
शिवकृपा से भगवान् भुवन भास्कर तो पूर्ववत् स्वस्थ हो गये, जिससे देवता और समस्त जगत् के प्राणी प्रसन्न हो गए, लेकिन महर्षि कश्यप के शाप के कारण सूर्यपुत्र शनि की दृष्टि पड़ते ही शिवजी के प्रिय पुत्र श्रीगणेश का मस्तक कट गया । इसके बाद ही उन्हें गज का शीश लगाया गया, जिससे वे गजानन और हस्तशुंड कहलाए ।

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