आज के कंप्यूटर युग मैं जन-मानस आधुनिकता में आके पुरानी मान्यताओ को ढकोसला बताते है।
आज भी दादा-दादी सामान गोत्र मैं शादी करना नहीं चाहते ।
जबकि आज प्रेम का जमाना है, प्रेम करने के पूर्व जात तो पूछी नहीं जाती -गोत्र की चर्चा ही बेमानी है।
इन दिनों गोत्र शब्द की बहुत चर्चा है। इस ने समाज में बड़े झगड़े भी उत्पन्न किए हैं। यह कब से प्रचलन में है इसे ठीक से नहीं कहा जा सकता। संस्कृत में यह शब्द नहीं मिलता है। वहाँ गोष्ठ शब्द तो मिलता है जो कि गोत्र का समानार्थक है।
गोत्र की परिभाषा :- गोत्र जिसका अर्थ वंश भी है । यह एक ऋषि के माध्यम से शुरू होता है और हमें हमारे पूर्वजों की याद दिलाता है और हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताता है ।
आगे चलकर यही गोत्र वंश परिचय के रूप मैं समाज मैं प्रतिष्ठित हो गया.. एक सामान गोत्र वाले एक ही ऋषि परंपरा के प्रतिनिदी होने के कारन भाई-बहिन समझे जाने लगे… जो आज भी बदस्तूर जारी है…
प्रारंभ मैं सात गोत्र थे कालांतर मैं दुसरे ऋषियों के सानिध्य के कारणअन्य गोत्र अस्तित्व मैं आये !!
जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत ही यही रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिन्दुओं में गोत्र होता है जो किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। गोत्र को बहिर्विवाही समूह माना जाता है अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध न हो अर्थात एक गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते पर दूसरे गोत्र में विवाह कर सकते, जबकि जाति एक अन्तर्विवाही समूह है यानी एक जाति के लोग समूह से बाहर विवाह संबंध नहीं कर सकते।
गोत्र मातृवंशीय भी हो सकता है और पितृवंशीय भी। ज़रूरी नहीं कि गोत्र किसी आदिपुरुष के नाम से चले। जनजातियों में विशिष्ट चिह्नों से भी गोत्र तय होते हैं जो वनस्पतियों से लेकर पशु-पक्षी तक हो सकते हैं। शेर, मगर, सूर्य, मछली, पीपल, बबूल आदि इसमें शामिल हैं। यह परम्परा आर्यों में भी रही है। हालांकि गोत्र प्रणाली काफी जटिल है पर उसे समझने के लिए ये मिसालें सहायक हो सकती हैं। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लोकायत में लिखते हैं कि कोई ब्राह्मण कश्यप गोत्र का है और यह नाम कछुए अथवा कच्छप से बना है।
इसका अर्थ यह हुआ कि कश्यप गोत्र के सभी सदस्य एक ही मूल पूर्वज के वंशज हैं जो कश्यप था। इस गोत्र के ब्राह्मण के लिए दो बातें निषिद्ध हैं। एक तो उसे कभी कछुए का मांस नहीं खाना चाहिए और दूसरे उसे कश्यप गोत्र में विवाह नहीं करना चाहिए। आज समाज में विवाह के नाम पर आनर किलिंग का प्रचलन बढ़ रहा है उसके मूल में गोत्र संबंधी यही बहिर्विवाह संबंधी धारणा है।
मानव जीवन में जाति की तरह गोत्रों का बहुत महत्त्व है ,यह हमारे पूर्वजों का याद दिलाता है साथ ही हमारे संस्कार एवं कर्तव्यों को याद दिलाता रहता है । इससे व्यक्ति के वंशावली की पहचान होती है एवं इससे हर व्यक्ति अपने को गौरवान्वित महसूस करता है । हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए है । ये किसी न किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ॠषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए है । इनकी उत्पत्ति कैसे हुई इस सम्बंध में धार्मिक ग्रन्थों का आश्रय लेना पड़ेगा ।
धार्मिक आधार- महाभारत के शान्ति पर्व (२९६ -१७ , १८ ) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे-
1-अंगिरा।
2- कश्यप।
3- वशिष्ठ
4- भृगु ।
बाद में आठ हो गए जब जमदन्गि, अत्रि, विश्वामित्र तथा अगस्त्य के नाम जुड़ गए । गोत्रों की प्रमुखता उस काल में बढी जब जाति व्यवस्था कठोर हो गई और लोगों को यह विश्वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे ।
उस काल में ब्राह्मण ही अपनी उत्पत्ति उन ऋषियों से होने का दावा कर सकते थे । इस प्रकार किसी ब्राह्मण का अपना कोई परिवार, वंश या गोत्र नहीं होता था ।
एक क्षत्रिय या वैश्य यज्ञ के समय अपने पुरोहित के गोत्र के नाम का उच्चारण करता था । अत: सभी स्वर्ण जातियों के गोत्रों के नाम पुरोहितों तथा ब्राह्मणों के गोत्रों के नाम से प्रचलित हुए ।
शूद्रों को छोड़कर अन्य सभी जातियों जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे । गोत्रों की समानता का यही मुख्य कारण है ।
शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परम्परागत अनन्तकाल तक सेवा करते रहे उन्होंने भी उन्हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए । इसी कारण विभिन्न आर्य और अन्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है ।
मनु स्मृति के अनुसार कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था बनाई गई थी । मनुष्यों में कोई छोटा या बड़ा नही होता । शरीर के सभी अंगों का अपनी-२ जगह महत्व है । वैसे तो संसार के सभी धर्म, सम्प्रदायों में जाति-पाति का थोड़ा बहुत भेद अवश्य मिलेगा किन्तु वह भेद अहंकार, घृणा और एक-दूसरे को नीचा दिखाने कि भावना से हुआ, क्योंकि धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सभी मनुष्य समान हैं ।
जाति व्यवस्था को मजबूत बनाया गया । जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे कार्य जाति में ही सम्पन्न होने का रिवाज बन गया । लोगों ने अपनी जाति के बाहर सोचना ही बन्द कर दिया ।
चौहान राजपूतों, मालियों, आदि कई जातियों में मिलना सामान्य बात है । सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढ़ि सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए ।
राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले शुद्र तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों एवं चमड़े का कार्य करनेवाले चर्मकार आदि व्यक्तियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं । लम्बे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई ।
ब्राह्मणों के विवाह में गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है। पुराणों व स्मृति ग्रंथों में बताया गया है कि यदि कोई कन्या संगौत्र हो, किंतु सप्रवर न हो अथवा सप्रवर हो किंतु संगौत्र न हो, तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जाना चाहिए।
विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्ति की संतान ‘गौत्र” कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। आगे चलकर गौत्र का संबंध धार्मिक परंपरा से जुड़ गया और विवाह करते समय इसका उपयोग किया जाने लगा।
भारत वैदिक काल से ही कृषि प्रधान देश रहा है.. और कृषि मैं गाय का बड़ा महत्त्व रहा है.. वैदिक काल से ही आर्य ऋषियों के निकट रह कर पठान, इज्या, शासन, कृषि, प्रशासन, गोरक्षा और वाणिज्य के कार्यों द्वारा अपनी जीविका चलाते थे..
और चूँकि भारत की जलवायु कृषि के अनुकूल थी, इसी लिए आर्य जन कृषि विज्ञानं में पारंगत थे, और कृषि मैं गाय को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया.. वह भारतीय कृषि और जीवन की धुरी बन चुकी थी |
गोऊ माता परिवार की सम्रधि का पर्याय थी.. गौपालन एक सुनियोजित कर्म था, यद्यपि गायें पारिवारिक संपत्ति होती थी पर उनकी देख रेख, संरक्षण ऋषियों की देख-रेख मैं सामुदायिक तरीके से होता था.. अपनी गायों की रक्षा के लिए लोग कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे … इस प्रकार गौपालन के प्रवर्तक ऋषि थे |
गौपालन करनेवाले अनेक वंशो के अलग-अलग कुल सुविधानुसार अलग-अलग ऋषियों की छत्र छाया मैं रहते थे,
लोग ऋषि के आश्रम के पास ग्राम बना कर गौपालन, कृषि और वाणिज्यिक कार्य करते थे.. इस प्रकार जो लोग किसी ऋषि के पास रह कर गौपालन करते थे वे उसी ऋषि के नाम के गोत्र के पहचाने जाने लगे..
जैसे कश्यप ऋषि के साथ रहने वाला रामचंद्र अपना परिचय इस प्रकार देता था:
कश्यप गोत्रोत्पन्नोहम रामचंद्रसत्वामभीदाये
मैं कश्यप गोत्र मैं पैदा हुआ रामचंद्र आपको प्रणाम करता हूँ…
जैसे कश्यप ऋषि के साथ रहने वाले सभी वर्णों के लोग कश्यप गोत्र के हो गए
गोत्र पद्धति प्रारम्भ करने की वजह:-
वजह केवल यह है की ऋषियों ने एक ही कुल में विवाह को निषेध बताया था जो की गोत्र सिस्टम में परिवर्तित हो गयी।
जिन लोगों ने आयुर्वेद का अध्यन किया हो वे जानते होंगे की एक पुरुष का रक्त आने वाली 7 पीढ़ियों तक उपस्थित रहता है रक्त का तात्पर्य
DNA से है ,और स्त्री का 3 पीढ़ियों तक जो की वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लगभग भी है ,ऐसा आयुर्वेद में स्पष्ट रूप से लिखा है की यदि इस प्रकार के रक्त में यदि मेल होता है,और उससे संतान उत्पत्ति होती है तो उस संतान का रक्त अर्थार्त DNA कमजोर होता है जिससे उसमे कई प्रकार की बीमारियाँ होने की सम्भावना होती है जैसे की शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का कम होना ,शारीरिक विकृतियाँ होना ,वंशानुगत बीमारियाँ होना आदि आदि ,
इसका सीधा उदाहरण है भारत में बाघों की संख्या में भारी कमी का आना है ,वैज्ञानिक शोधों से पता चला है की भारत में बाघों के शिकार के आलावा उनकी मृत्यु का प्रमुख कारण है उनके इम्युनिटी सिस्टम का कमजोर होना , क्यूंकि ज़्यादातर बाघ अन्य दुसरे बाघों की अपने क्षेत्र में उपस्थिति न होने के कारण आपस में ही सम्बन्ध बनाते हैं ,जो की एक ही परिवार के होते हैं
इसलिए सरकार बाघों की ब्रीडिंग अन्य जंगलों से लाये हुए बाघों से करवाती है और जिसके फलस्वरूप उनकी संख्या में सुधार भी हो रहा है ,यही बात इंसानों पर भी लागू होती है।
और रही बात गोत्र सिस्टम की तो, आप सभी जानते हैं की हिन्दू धर्म में नियम अक्सर रुढ़िवाद का रूप ग्रहण कर लेती हैं ,जैसे वर्ण व्यवस्था का जातिगत व्यवस्था में परिवर्तन आदि आदि ।
Posted Comments |
" जीवन में उतारने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कई लोग तो इस संबंध में कुछ जानते ही नहीं है । ऐसे लोगों के लिए यह अत्यन्त शिक्षा प्रद जानकारी है ।" |
Posted By: संतोष ठाकुर |
"om namh shivay..." |
Posted By: krishna |
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye" |
Posted By: vikaskrishnadas |
"वास्तु टिप्स बताएँ ? " |
Posted By: VAKEEL TAMRE |
""jai maa laxmiji"" |
Posted By: Tribhuwan Agrasen |
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है" |
Posted By: ओम प्रकाश तिवारी |
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