प्रभु श्री राम भक्त हनुमान जी ने एक ही छलांग में समुद्र को पार कर लिया था। तथा जब अहिरावण नामक दैत्य पाताल लोक में श्री राम और लक्ष्मण जी का अपहरण करके ले गया था, तब भी श्री हनुमान जी ने पाताल लोक में जाकर, अहिरावण का वध करके राम और लक्ष्मण को मुक्त कराया था। फिर पाताल लोक से वापस लंका आने के लिए हनुमान जी ने श्री राम और लक्ष्मण जी को अपने कंधे पर बैठा लिया था और अपनी शक्ति से उड़ान भरते हुए सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा को मात्र कुछ मिनटों में पूर्ण कर लिया था।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब श्री हनुमान जी लंका में प्रभु श्री राम का संदेश लेकर माता सीता के पास गए थे। तब वह माता सीता को कंधे पर बैठाकर लंका से वापस नहीं ला सकते थे क्या? जबकि इस समय हनुमान जी ने वहां पर रावण के बेटे अक्षय कुमार को मारा, मेघनाद से युद्ध किया, रावण की सभा में उसका घमंड तोड़ा और लंकादहन जैसा अद्भुत कार्य करके रावण को खुली चुनौती देकर वापस आये थे तो फिर क्यों नहीं वह सीता माता को भी ले आए।
माता सीता को जब लंका में जब हनुमान जी ने पहली बार देखा था तो वह रावण की अशोक वाटिका में बहुत दुखी और निराश होकर बैठी थी। जिससे हनुमान जी का मन बहुत व्यथित हुआ। फिर उन्होंने सीता माता के सामने लघु रूप धारण करके माता को प्रणाम किया और प्रभु श्रीराम की दी हुई अंगूठी उनके सम्मुख रखी और कहा- 'हे माता जानकी, मैं श्रीरामजी का दूत हनुमान हूँ। करुणानिधान प्रभु श्री राम की सच्ची शपथ खाकर कहता हूँ, कि उनकी यह अंगूठी मैं ही लेकर आया हूँ। आपके लिए प्रभु श्री राम जी ने यह निशानी (प्रतीक) दी है।'
श्री हनुमान जी के आदर व प्रेम मय मधुर शब्दों सुनकर माता सीता जी को विश्वास हो गया कि यह अंगूठी श्री राम जी की है और यह नन्हा-सा वानर कोई छद्म वेश धारी राक्षस नहीं है। सीता माता अब जान चुकी थी कि यह बंदर मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथ जी का प्रिय कोई दास है, मगर माता यह नहीं समझ पा रही थी कि ये यहाँ पर पहुंचा कैसे? न ही इसके मन में दैत्यों का तनिक भी भय है?
तब श्री राम दूत, हनुमान जी ने कहा- 'हे माता, मेरे लिए राक्षस और दानव बहुत तुच्छ है। मैं अपनी शक्ति और सामर्थ्य से आपको अभी तत्क्षण प्रभु श्री राम जी के समक्ष ले जा सकता हूँ, मगर अभी मुझे इस कार्य की अनुमति नहीं है।'
'हे माता जानकी! मैं तो आपको अभी यहां से ले जाऊं, पर मेरे प्रभु श्री रामचन्द्र जी की मुझे अनुमति नहीं मिली है।' अतः हे माता! आप कुछ दिन का और धैर्य धारण करें। प्रभु श्री रामचन्द्र जी शीघ्र ही अपनी वानर सेना के साथ यहां पर आएंगे। हनुमानजी ने कहा - श्री रामचन्द्र जी यहां आएंगे और दानव को सर्वनाश करके आपको इस कैद से मुक्त कराकर अपने साथ वापस ले जाएंगे। तब नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनके यश का गान करेंगे। तब माता सीता जी ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए हनुमान जी से कहा- 'हे पुत्र! सभी वानर तुम्हारे जैसे ही छोटे छोटे से होंगे। ये दैत्य असुर तो बहुत बलवान, शक्तिशाली, मायावी और योद्धा हैं, तो प्रभु श्री राम कैसे वानरों की सेना लेकर इनसे जीत पाएंगे?'
माता सीता जी ने कहा- 'हे पुत्र, मेरे मन में यह भारी आशंका है कि तुम जैसे वानर किस प्रकार इस समुद्र को पार कर पाएंगे और कैसे इन असुरो को परास्त कर पाएंगे?' सीता माता के इन शब्दों को सुनकर हनुमान जी ने अपना दिव्य शरीर प्रकट किया। हनुमान जी का यह रूप सुमेरु पर्वत की भांति बहुत बड़े आकार का था, जो युद्ध में दुश्मनो के मन में डर पैदा करने वाला। अपने इस रूप में श्री हनुमान जी बहुत शक्तिशाली और वीर प्रतीत हो रहे थे।
अब हनुमान जी का ये दिव्य रूप को देखकर माता सीता जी के मन में साहस उत्पन्न हुआ और उनको विश्वास हो गया कि श्री राम चंद्र जी अवश्य ही रावण को हरा देंगे। हनुमान जी ने फिर पुनः सूक्षम रूप धारण कर लिया और सीता माता ने उनको अजर अमर होने का वरदान दिया।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥
भावार्थ:- हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों से युक्त हो जाओ। श्री रघुनाथ जी की तुम पर खूब कृपा हो। 'प्रभु श्री राम की कृपा हो' ऐसे वचन माता सीता से सुनकर श्री हनुमान् जी प्रभु श्री राम की पूर्ण भक्ति में लीन हो गए। फिर हनुमान जी ने माता सीता से फल खाने की अनुमति मांग कर विदाई ली।