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जड़ समाधि और चैतन्य समाधि

 

समाधि की भी दो दशाएं हैं। एक-मनुष्य से नीचे गिर जाओ। भांग पी ली, गांजा पी लिया, चरस, शराब-तुम नीचे सरक गए। शराबी को देखते हो, कैसा मस्त मालूम पड़ता है, कैसा डगमगाता चलता है!

यह आकस्मिक नहीं है कि सूफियों ने शराबी से ही ध्यान की परिभाषा की है। और यह भी आश्‍चर्यजनक नहीं है कि शराबी की मस्ती और ध्यान की, प्रार्थना की मस्ती में, थोड़ा—सा तारतम्य है। ध्यानी की आंखों में भी तुम वैसे ही नशे के डोरे पाओगे। उसके चेहरे पर भी तुम वैसा ही आह्नाद पाओगे। उसके पैर भी डगमगाते हैं—कहीं पर रखता है पैर, कहीं पड़ जाते हैं। वह भी एक मस्ती से भरा है। वह भी कुछ पी उठा है। उसने भी कुछ भीतर रस की गागर उड़ेल ली है। मगर रस की गागर अलग—अलग है। और नशे का तल अलग—अलग है।

बच्चे में और संत में भी एक तरह का तारतम्य होता है। छोटे बच्चों में संतत्व नहीं दिखाई पड़ता? कैसा निर्दोष भाव! और संतों में भी छोटे बच्चों जैसा निर्दोष भाव दिखाई पड़ता है। मगर फिर भी भेद भारी है। बच्चा अभी विकृत होगा, संत विकृति के पार आ गया। बच्चे की अभी यात्रा शुरू नहीं हुई। यात्रा शुरू होने को है, अभी तैयारी कर रहा है। संसार में उतरेगा, भटकेगा, परेशान होगा, टूटेगा, बिखरेगा—और संत उस सारे बिखराव के पार आ गया। संत फिर से बच्चा हो गया है। दोनों में समानता है, दोनों में भेद है।

ऐसी ही जड़ समाधि और चैतन्य समाधि हैं। जड़ समाधि का अर्थ होता है: हमारे भीतर जो थोड़ा सा चैतन्य है, उसे भी गंवा दो। एक लाभ है। चैतन्य थोड़ा ही है हमारे भीतर, कोई ज्यादा है भी नहीं, खोने में कठिनाई भी नहीं होती जैसे ही चैतन्य हमारे भीतर खो जाता है, वैसे ही हमारे भीतर एक स्वर बजने लगता है। द्वंद्व विदा हो गया, दुई न रही। भेद न रहा हमारे भीतर, खंड न रहे हमारे भीतर। हम अविभाज्य हो गए। अचेतन सही, मगर अविभाज्य हो गए। इकट्ठे हो गए। यही तो नींद का मजा है कि तुम इकट्ठे हो जाते हो। दिनभर टूटते हो, बिखरते हो, रात फिर जुड़ जाते हो। सुबह फिर शक्ति उठ आती है।

ऐसी ही जड़ समाधि की अवस्था है। चैतन्य खो गया, फिर तुम इकट्ठे हो गए। मगर यह इकट्ठा होना कोई बड़ा बहुमूल्य इकट्ठा होना नहीं है। तुम पत्थर होकर इकट्ठे हुए। इससे तो आदमी होना बेहतर था। याद करो सुकरात का वचन! सुकरात ने कहा है कि  मैं असंतुष्ट रहकर भी सुकरात रहना ही पसंद करूंगा। अगर संतुष्ट होकर मुझे सुअर होने का मौका मिले, तो भी मैं सुअर होना पसंद नहीं करूंगा। संतोष भी मिलता हो सुअर होने से, तो सुकरात कहता है: मैं सुअर होना पसंद नहीं करूंगा। और असंतुष्ट ही रहना पड़े मुझे, जलना पड़े असंतोष में, लेकिन सुकरात रहकर, तो मैं यही चुनाव करूंगा।

रामकृष्ण को भी ऐसी समाधि लगती थी, वह जड़ समाधि थी। फिर तोतापुरी ने उन्हें चेताया। तोतापुरी ने उन्हें कहा कि यह तो जड़ समाधि है। यह तुम्हारा पड़ जाना मुर्दे के भ्रांति, इससे कुछ सार नहीं। जागो!

तोतापुरी की सतत चेष्टा से रामकृष्ण जागे। और जिस दिन रामकृष्ण को चैतन्य समाधि लगी, उस दिन उन्होंने जाना कि मैं किस भ्रांति में भटका था! मैं कैसी भूल में चला जा रहा था! मैंने अंधेरे को ही रोशनी समझ लिया था। मैंने मूर्च्छा को होश समझ  लिया था।

आदमी का लोभ ऐसा है कि हर किसी के जाल में पड़ सकता है—लोभ के कारण। कहीं से भी मिल जाए, मिल जाए। और मिलता कहीं से भी नहीं, खयाल रखना। मिलता सदा अपने भीतर से है। कोई दूसरा तुम्हें दे नहीं सकता। और दूसरे के साथ जितना समय व्यर्थ गंवा रहे हो, पछताओगे पीछे। मिलना अपने भीतर है। लेकिन अपने भीतर पाने के लिए श्रम करना होता है। और श्रम कोई करना नहीं चाहता। लोग आलसी हैं। धन के लिए तो श्रम कर लेते हैं, ध्यान के लिए श्रम नहीं करना चाहते।

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Posted Comments
 
" जीवन में उतारने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कई लोग तो इस संबंध में कुछ जानते ही नहीं है । ऐसे लोगों के लिए यह अत्यन्त शिक्षा प्रद जानकारी है ।"
Posted By:  संतोष ठाकुर
 
"om namh shivay..."
Posted By:  krishna
 
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye"
Posted By:  vikaskrishnadas
 
"वास्तु टिप्स बताएँ ? "
Posted By:  VAKEEL TAMRE
 
""jai maa laxmiji""
Posted By:  Tribhuwan Agrasen
 
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है"
Posted By:  ओम प्रकाश तिवारी
 
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