एक कवि था, रिल्के। जिन लोगों ने रिल्के को कपड़े भी पहनते देखा है वे कहते थे कि हम हैरान हो जाते थे।
जिन लोगों ने उसे खाना खाते देखा है वे कहते थे हम हैरान हो जाते हैं। जिन लोगों ने रिल्के को जूते पहनते देखा है वे कहते थे वह अदभुत थी घटना यह देखना कि वह कैसे जूते पहन रहा है।
वह तो ऐसे जूते पहनता था जैसे जूते भी जीवित हों, वह तो उनके साथ ऐसे व्यवहार करता था जैसे वे मित्र हों। वह कपड़े पहनता तो वह खुद से यह ही नहीं पूछता था कि कौन सी कमीज मुझ पर अच्छी लगेगी। उल्टा वह कमीज से यह पूछता था कि क्या इरादे हैं, मैं तुम्हें अच्छा लगूंगा?
वह कोट भी ऊपर डालता तो कोट से भी पूछता, क्या खयाल है, चल सकूंगा मैं तुम्हारे साथ?यह तो कभी हमने सोचा भी न होगा? हमने यह बात दर्पण के सामने खड़े होकर कई बार सोची होगी कि कि यह कोट चल सकेगा मेरे साथ में, क्योंकि कोट है मुर्दा, और हम हैं जिंदा; कोट को हमारे साथ में चलना है।
लेकिन रिल्के को लोगों ने सुना है, वह अक्सर आईने के सामने खड़ा होता है और कोट से पूछता है कि दोस्त चल सकूंगा मैं तुम्हारे साथ?
जूता उतार रहा है तो वह पोंछ रहा है उसे, जूते को रखता है तो उसे धन्यवाद दिया है, कि तुम्हारी कृपा! दो मील तक तुम मेरे साथ थे। दो मील तक तुमने मेरी सेवा की है और उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं।
पागल आदमी मालूम होगा हमें। निश्चित ही पागल मालूम होगा, क्योंकि हम सब इतने कठोर हैं कि प्रेम की तरलता हमें पागलपन ही मालूम हो सकती है। और कुछ हमें मालूम नहीं हो सकता है।
लेकिन यह सवाल भी नहीं है कि इससे जूते को कुछ फायदा हो गया होगा कि नहीं हो गया होगा, कि कोट ने सुना होगा कि नहीं सुना होगा। यह इररिलेवेंट है, यह असंगत है।
लेकिन जो आदमी कोट और जूते और पत्थर और दरवाजे के प्रति भी इतना सह्रदय, इतना करुणापूर्ण, इतना अनुग्रह से भरा हुआ है, यह आदमी मानो दूसरा आदमी हो गया है। इस आदमी से किसी आदमी के प्रति कठोर होने की संभावना हो सकती है? यह असंगत है?
उससे बात पूछी गयी कि कोट ने सुना या नहीं सुना तो जवाब मिला, मैं तो यही मानता हूँ कि कोट भी सुनता है, लेकिन मेरी बात मानने की किसी को कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन यह आदमी, यह व्यक्ति, यह जो इतना प्रेमपूर्ण है, इतना करुणापूर्ण है, यह जो इतना धन्यवाद से भरा हुआ है जूते के प्रति भी। यह आदमी अपने इस व्यवहार से रूपांतरित हो रहा है। यह आदमी बदल रहा है, यह आदमी एक दूसरी ही तरह का आदमी हो जाएगा।
क्या यह आदमी कठोर हो सकता है? क्या यह आदमी हिंसक हो सकता है? क्या यह आदमी क्रोध से देख भी सकता है आंख उठाकर? यह सब असंभव है और इस आदमी में एक बहाव होगा, समय के साथ इस आदमी की चेतना एक तरल सरिता बन जाएगी।
निश्चित ही ऐसे आदमी को देखना भी एक अनुभव है। लेकिन हमें और आम जनमानस को वह आदमी पागल ही मालूम होगा। हम सब इतने बुद्धिमान हो चुके हैं अपनी कठोरता में कि प्रेम सदा ही पागल पन मालूम पड़ेगा। लेकिन अगर कुछ तोड़ना है कभी, तो थोडा पागल होना जरूरी है, प्रेम की दिशा में थोड़ा पागल होना जरूरी है, करुणा की दिशा में थोड़ा पागल होना जरूरी है।