सच तो यह है कि मोह व्यक्तियों से होता है, मोह एक सम्बन्ध है; और प्रेम स्थिति, संबंध नहीं। प्रेम व्यक्तियो से नहीं होता। प्रेम एक भावदशा होती है। जैसे दीया जले तो जो भी दीये के पास से निकलेगा उस पर रौशनी पड़ेगी। वह कुछ देख-देख कर रौशनी नहीं डालता कि यह अपना आदमी है, जरा ज्यादा रौशनी; कि यह अपना चमचा है, कुछ कम रौशनी; कि यह तो पराया है, मरने दो, जाने दो अँधेरे में। रौशनी जलती है तो सब पर पड़ती है। फूल खिलता है, सुगंध सबको मिलती है कोई मित्र नहीं, कोई शत्रु नहीं।
प्रेम एक अवस्था है, सम्बन्ध नहीं। मोह एक सम्बन्ध है। प्रेम तो बड़ी अदभुत बात है। जब तुम्हारे भीतर प्रेम होता है तो तुम्हारे चारों तरफ प्रेम की वर्षा होती है- जिसको लूटना हो लूट ले; जिसको पीना हो पी ले; जो पास आ जाये उसकी ही झोली भरेगी; जो पास आ जाये उसकी ही प्याली भर जाएगी। फिर न कोई पात्र देखा जाता है, न अपात्र। फिर ना कोई अपना है ना कोई पराया।
प्रेम तुम्हारी आत्मा का जाग्रत रूप है। और मोह तुम्हारी आत्मा की सॊइ हुई अवस्था है। मोह में तुम अपने से दुखी हो। इसलिए सोचते हो कि शायद दुसरे के साथ रह कर शायद सुख मिल जाये। खुद तुम सुखी नहीं हो। अकेले में सिवाए नरक के और कुछ भी नहीं है। इसलिए दुसरे की तलाश करते हो। और बड़ा मजा यह है कि दूसरा भी तुम्हारी तलाश इसलिए कर रहा है कि वह भी अकेले में दुखी है। दो गलतिया मिल कर कभी ठीक नहीं होती है। दो गलतिया मिल कर दो नहीं होती बल्कि बल्कि गुणनफल हो जाता है और वो दोगुनी हो जाती है। । तुम भी भिखमंगे, दूसरा भी भिखमंगा। वह इस आशा में है की तुमसे मिलेगा आनंद, तुम इस आशा में हो की उससे मिलेगा आनंद। दोनों एक दुसरे को आशा दे रहे हो। दोनों लगाये अपने अपने काटों में आटा बैठे हो। दोनों फसोगे। और जल्दी ही पाओगे की काँटा निकला, आटा था ही नहीं। आटा ऊपर ऊपर था; वह तो कांटे को छुपाने के लिए था। और जब काँटा छिद जायेगा, तब बड़ी देर हो गयी। तब भाग निकलना मुश्किल हो गया।