Home » Article Collection » भक्ति का सुख कैसा होता है

भक्ति का सुख कैसा होता है

 

कबीर कहते हैं, अब तो रामभजन में रस बहा है, जैसा हृदय पुलकित हुआ है, वैसा पुलकित कभी नहीं हुआ था--धन में, पद में, प्रतिष्ठा में। वह बात गई; वह बात व्यर्थ हो गई--अनुभव से व्यर्थ हो गई।

ध्यान और धन को समझ लो। धन यानी बाहर की दौड़। ध्यान यानी अंतर्यात्रा, धन यानी बहिर्यात्रा। धन यानी मेरे पास और हो जाए, और हो जाए । और ध्यान यानी मैं शून्य हो जाऊं; मेरे भीतर कुछ भी नहीं न रह जाए। मैं मंदिर बन जाऊं एक सूना मंदिर। और जिस मंदिर सूना होता है, उसी दिन परमात्मा की प्रतिमा विराजमान हो जाती है। प्रतिमा लानी ही नहीं पड़ती; शून्य ही पुकार लेता है पूर्ण को।

शून्य काफी है। तुमने शर्त पूरी कर दी; और कुछ तुम्हें नहीं करना होता है। फिर द्वार खोल दिए हैं; प्रतीक्षा भर करनी होती है। एक दिन अनायास तुम पाते होः परमात्मा उतरा है और तुम्हारा रोआं-रोआं रोशन हो गया; और तुम्हारे कण-कण में नये जीवन का आविर्भाव हुआ है। वसंत आ गया-ऐसा वसंत जो फिर कभी जाता नहीं। मधुरस बरसा। फिर यह वर्षा कभी बंद नहीं होती। समय से तुम छलांग लगा गए और कालातीत में प्रवेश हो गया।

Copyright © MyGuru.in. All Rights Reserved.
Site By rpgwebsolutions.com