भक्ति योग का अर्थ हुआ परमेश्वर से प्रेममयी सेवा द्वारा जुड़ना। हम सभी में प्रेम और भक्ति है, परन्तु सुप्त अवस्था में। और इस अवस्था से निकल कर परम पुरुषोत्तम भगवन की सेवा में लगने का एक सरल उपाय है। यह उपाय स्वयं भगवान श्री कृष्ण द्वारा ही भगवद-गीता में बताया गया है।
अर्जुन बोलेः जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार निरन्तर आपके भजन ध्यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी निराकार ब्रह्म को ही अति श्रेष्ठ भाव से भजते हैं – उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?
श्री भगवान बोलेः मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं।परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथीनयस्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं। उन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है, क्योंकि जीव के द्वारा अव्यक्त-विषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है।परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझे अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं।
हे अर्जुन ! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही जन्म ओर मृत्युरूप संसाररुपी समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ।यदि तुम मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन ! तुम भक्तियोग के विधि विधानो का पलना करो इसके के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर यदि तुम उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण करो । इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा। यदि तुम मेरे लिए कर्म करने में असमर्थ हो तो जो मन बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग कर ओर यदि तुम यह अभ्यास नहीं कर सकते हो तो ज्ञान के अनुशीलन लग जाओ। लेकिन ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है। परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं।इन सब के अतिरिक्त सामान्य जीवन में भी हम कुछ कार्य करते हैं । परन्तु अगर इस भावना से कार्य किये जाएँ कि वे सब श्री भगवान की प्रसन्नता के लिए हैं एवं उनके फलस्वरूप जो भी प्राप्त होगा वो उनको ही अर्पित करें तो यह भी भक्ति-योग ही है ।