शांति लोगों के घरों में साफ-सफाई करने और बर्तन मांजने करने का कार्य किया करती थी। घर में उसके साथ पति, उसका एक बेटा और एक बेटी भी रहते थे। शांति की कामना थी कि वह अपने बच्चों को अच्छे से पढ़ा लिखा करके काबिल बनाए। मगर पारिवारिक स्थिति उसको काफी विचलित करती थी क्योंकि उसके पति के पास कोई भी एक निश्चित काम नहीं था। कभी उसको कारखाने में काम मिल जाता था तो कभी नहीं मिलता था। जिस वजह से मजबूरी में शांति को लोगों के यहाँ पर घरों में झाड़ू पोछे का काम करना पड़ता था।
शांति जब काम पर जाया करती थी, तो रास्ते में एक मंदिर पड़ता था मंदिर की सीढ़ियों से ही श्री कृष्ण जी और राधे जी के दर्शन हो जाते थे। उस मंदिर में नित्य प्रतिदिन प्रभु के नाम का संकीर्तन भी होता रहता था। शांति को वह प्रभु का संकीर्तन सुनकर बहुत अच्छा लगता था। इसलिए वह अक्सर काम पर जाने से पहले पांच दस मिनट के लिए प्रभु के मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर श्री हरी संकीर्तन का श्रवण करती थी। मगर शांति को बाहर से श्री कृष्ण और राधे माँ के दर्शन ठीक से नहीं हो पाते थे। पुरानी साड़ी पहने वह अपनी दयनीय स्थिति की वजह से शर्मिंदगी महसूस करती थी और सोचती थी कि यदि मैं मंदिर के अंदर जाऊंगी तो कहीं क्रोधित होकर पंडित जी मुझे बाहर न निकाल दें। इस डर से शांति मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर हरी संकीर्तन को सुनती थी।
वह अधिकांशतः देखती रहती थी कि लोग कृष्ण जी और राधे जी के लिए हर रोज भिन्न भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट मिष्टान बनाकर लाते थे। प्रभु को भोग लगाकर उनकी सेवा किया करते थे। कुछ प्रभु भक्त राधे कृष्ण के लिए सूंदर पोशाक लेकर आते थे और कई औरते मंदिर के प्रांगण में सोहनी सेवा और पोछा भी किया करती थी। यह सब देखकर शांति का भी बहुत मन करता था कि वह भी कृष्ण जी को भोग लगाए, नए पोशाक लेकर आए प्रभु के मंदिर का प्रांगण साफ करें। मगर अपनी इस दयनीय स्थिति की वजह मंदिर के अंदर भी नहीं जा पाती थी, क्योंकि मंदिर के अंदर हमेशा बड़े बड़े अमीर सेठ सेठानी और धनी लोग ही आते थे जिसकी वजह से शांति को अंदर जाने में शर्मिंदगी महसूस होती थी।
जहाँ पर शांति काम किया करती थी उस घर के लोग कुछ महीनों के लिए विदेश घूमने जा रहे थे। जिसकी वजह से शांति का काम भी छूट गया और उसके पास अब कोई काम नहीं बचा था। जिस कारण अब वह हर रोज घर से तो आ जाती थी किन्तु मंदिर की सीढ़ियों पर घंटों बैठकर श्री कृष्ण और माँ राधे जी की सेवा करते लोगों को देखती रहती थी। ऐसे ही एक दिन जब शांति हर दिन की भाँति मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी हुई थी, तो मंदिर की सीढ़ियों से एक नवविवाहित युगल जोकि अत्यधिक सुंदर तथा बहुत रूपवान था नीचे की ओर आ रहा था। कि तभी अचानक से उस नवविवाहित सेठानी का पैर सीढ़ियों से फिसल गया जिसे देखकर शांति ने तेजी से झपटकर उसको पकड़ लिया, जिस कारण वह सीढ़ियों से गिरने से बच गई।
सेठ और सेठानी ने शांति का बहुत धन्यवाद किया और वह युवक अपनी नवविवाहित पत्नी को हाथ पकड़कर आगे की ओर लेकर चल पड़ा। तभी शांति ने पीछे से सेठ को आवाज लगाकर कहा बाबू जी सेठानी को उठाते समय आप के कुर्ते की जेब से आपका ये पर्स मंदिर की सीढ़ियों पर गिर गया था। वह नव युवक सेठ शांति की ईमानदारी से बहुत खुश हुआ और उसका आभार प्रकट करते हुए बोला कि आप सूंदर ह्रदय के साथ बहुत ईमानदार भी हो। सेठ जी के यह पूछने पर कि तुम क्या काम करती हो शांति ने बताया कि मैं लोगों के घर में साफ सफाई का काम करती थी। मगर फिलहाल तो मेरा काम छूटा हुआ है यह सुनकर सेठ ने कहा कि हमारी अभी नई नई शादी हुई है क्या आप हमारे घर में काम करोगी तो शांति ने प्रसन्नता पूर्वक उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। सेठ ने कहा कि मगर हमारा घर तो यहां से बहुत दूर है, इसलिए आप ऐसा किया करो कि रोज मंदिर आ जाया करो और यहाँ से हमारे साथ हमारे घर चल दिया करो। सारी बात तय हो गयी, अब तो रोज सेठ और सेठानी मंदिर आ जाया करते और शांति उनके साथ गाडी में बैठकर उनके घर चली जाती। इन नए सेठ सेठानी का घर..घर नहीं बल्कि एक आलीशान महल के जैसा था। इस घर को देखकर शांति बहुत ही अधिक खुश हुई, उसने तो सपने में भी कभी इतना सुंदर घर नहीं देखा था। घर में इत्र की खुशबू चारों ओर फैली हुई थी घर के हर कोने का एक आनंदमय वातावरण था ।
घर में पहले से ही इतनी अधिक साफ सफाई थी कि शांति को भी सफाई करने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। अपनी मेहनत, ईमानदारी और सूंदर भाव से अब शांति उस घर का एक महत्वपूर्ण भाग बन गयी। वह रोजाना नहा धोकर आती और सेठानी के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोजन बनाकर उनको खिलाती। सेठानी के सुंदर रूप को देखकर शांति सेठानी से कहती थी कि क्या मैं आज आपका श्रृंगार कर दूँ और शांति बहुत सुंदर तरीके से सेठानी का श्रृंगार करती थी। उनके हाथों में मेहंदी लगाती, उनके बालों में गजरा लगाती, उनके पांव में पायल पहनाती। वह नव विवाहित सेठानी अक्सर शांति से बहुत खुश होकर कहती कि आपके द्वारा किया गया मेरा श्रृंगार सेठ जी को बहुत अच्छा लगता है।
सेठ सेठानी के यहां पर काम करते करते शांति के घर की स्थिति में भी परिवर्तन हो चुका था। युवा सेठ को शहर में बहुत लोग जानते थे जिनके माध्यम से शांति के पति को भी एक अच्छी जगह पक्की नौकरी मिल गई। उसके घर की स्थिति अब बहुत अच्छी हो गयी। शांति के अब बच्चे भी बहुत अच्छे स्कूल में पढ़ने लगे थे। शांति अब पहले की तरह गरीब नही रह गयी थी। अब उसके पास में इतना धन एकत्रित हो गया था कि वह भी चाहे तो अपने घर में नौकर रख सकती थी, लेकिन शांति मुसीबत में उसका साथ देने वाले सेठ सेठानी का घर को नहीं छोड़ना चाहती थी। फिर एक दिन अचानक ही ना जाने कैसे उसके मन में यह भाव आ गया कि सेठ सेठानी की सेवा करते मुझे इतने दिन हो गए है अब तो मेरे पास में भी इतना धन इकठ्ठा हो गया है कि मैं भी नौकर रख सकती हूं। मगर फिर उसने विचार किया नहीं, नहीं मुझे अपने घर से अधिक तो सेठ सेठानी के घर से आसक्ति है यदि मैं अपने घर में भी जाती हूं तो इस घर में मेरी आत्मा और मन में सेठ सेठानी की सेवा ही लगी रहती है। अगले दिन जब वह काम पर जाने के लिए मंदिर की सीढ़ियों पर खड़ी थी तो उसको सेठ सेठानी लेने के लिए नहीं आए। इसी तरह ही दो-तीन दिन हो गए लेकिन शांति को लेने के लिए वह लोग नहीं आए।
अब शांति बहुत परेशान रहने लगी चिंता करने लगी कि सेठ और सेठानी ठीक तो होंगे ना। किसी अमंगल के होने के भय से शांति के शरीर में अजीब सी उथल-पुथल होने लगी। वह दिन भर मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे रहती थी कि शायद सेठ सेठानी थोड़ी देर से आ जाएंगे लेकिन आज भी वो ना आए। शांति क्योंकि अब कई वर्षो से उनके घर पर जा रही थी इसलिए उनके घर का रास्ता भी उसको पता चल गया था। इसलिए अगले दिन शांति सुबह पैदल ही उनके घर के लिए चल दी काफी देर चलने के बाद में जब वह उस जगह पहुंची तो वह हैरान रह गई क्योंकि अब वहां पर कोई आलीशान मकान नहीं था। वहां पर एक पेड़ के नीचे एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है जिसमें छोटे छोटे श्री कृष्ण जी और राधे जी की मूर्ति रखी हुई थी। शांति इधर-उधर भाग भाग कर सभी से पूछती कि यहां पर जो एक आलीशान बंगला था वह कहां चला गया, सब लोग उसको कहने लगे क्या तुम बाँवरी हो गई हो। इस जगह पर तो पहले से ही कोई भी घर नहीं है, यहां तो इस पेड़ के नीचे यही एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है।
मगर अपनी बात पर शांति तो डटी रही कि मैं तो उनके यहां पर वर्षो से काम कर रही थी। किन्तु वहां से गुजर रहे लोगों में से किसी को भी उनके घर का पता मालूम नहीं था। शांति तो अब पूरी तरह से पागल हो चुकी थी और बस रोती रहती थी कि मेरे सेठ और सेठानी कहां पर चले गए हैं। मैं जिनके यहां पर वर्षो से आ रही हूं। यहां उनका घर ही नहीं है। लगातार एक हफ्ते तक शांति वहां आती रही किन्तु उसको न तो वह घर मिला और न ही उसका पता आखिरकार वह थक हार कर, उसी मंदिर में वापस गई जहां उसको पहली बार वो सेठ सेठानी मिले थे। मगर आज वो मंदिर की सीढ़ियों पर ना बैठकर मंदिर के अंदर चली गई क्योंकि अब वह पहले की तरह गरीब न रह गयी थी, आज तो उसने साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए थे। आज श्री कृष्ण जी और माँ राधे जी के मंदिर में उनकी मूर्ति के दर्शन करके वह पूरी तरह अचंभित हो गई थी, अरे यह तो बिलकुल उन्ही सेठ और सेठानी के रूप जैसी मूर्ति है अब शांति का माथा ठनका क्या जिनके यहां मैं वर्षो से काम कर रही थी वह श्री कृष्ण जी और श्री राधे जी थी।
क्या उन्होंने मेरे मन के भावों को पढ लिया था कि मैं उनकी सेवा करूं, मैं उनको भोग लगाऊं, मैं उनके लिए नए-नए पोशाक बना करके उनको पहनाऊं। उनके प्रांगण की सेवा करूं तो क्या यह उन्होंने स्वयं मुझे यह अवसर दिया है यह सोचकर शांति के पैरों तले जमीन खिसक गई, कि क्या जिनके साथ वह अभी तक रह रही थी वो सत्य में श्री कृष्ण जी और राधे माता थी। शांति अब खुद पर ग्लानि महसूस कर रही थी कि जब तक मेरे मन में भाव था कि मैं राधे कृष्ण जी की सेवा करुं, तब तक तो उन्होंने मुझको अपनी सेवा में रखा मगर जब मेरे मन में यह भाव आ गया कि अब तो मेरे पास में बहुत पैसा हो गया है और मैं भी अब तो नौकर रख सकती हूं, तो उन्होंने मेरे मन के भावों को जानकार मुझे अपनी सेवा से मुक्त कर दिया। अब शांति कृष्ण जी और राधे जी के सम्मुख जोर जोर से रोने लगी और क्षमा मांगने लगी। जिनके कारण आज मैं यहां तक पहुंची, आज उन्होंने मुझे अपनी सेवा से आजाद कर दिया है।
मंदिर में आने जाने वाले सभी लोग उसकी ओर देखकर काफी अचम्भित हो रहे थे, कि इनको क्या हो गया है! शांति तो मानो जैसे बिलकुल बावंरी सी ही हो गई थी। वह अब बस मंदिर की सीढ़ियों पर ही बैठी रहती और हर आने-जाने वाले भगत जन की चरणों धोकर अपने मस्तक पर लगाती रहती। साथ ही लाडली श्री राधे जू से विनय करती रहती कि माता आपने मुझे उस सेवा से तो वंचित कर दिया मगर जब तक मेरे शरीर में प्राण है तू अपने भक्त जनों की चरण धूलि से मुझे विमुख मत करना।
हमारे जैसे भी भाव होते हैं श्री कृष्ण जी हमेशा पहचान जाते हैं और उसी के अनुसार ही सदैव सेवा और कृपा भेट करते हैं। इसलिए हमें प्रभु के प्रति सेवा भाव सच्चे हृदय से रखनी चाहिए क्योंकि भगवान् जी केवल भाव के भूखे होते हैं ना कि धन के। अतः जैसी जिसकी भावना होती है वैसा ही फल ईश्वर के द्वारा हमें दिया जाता हैं।