ज्योतिषियों के परम आराध्य भगवान् गणेश ने भी एक बार ज्योतिषी का रुप धारण किया था । वैसे तो हम भगवान् गणेश के कई रुपों से परिचित हैं, लेकिन उनके ज्योतिषीय रुप को जानकर आश्चर्य होना सम्भव है । भगवान् गणेश ने यह रुप ब्रह्मा जी की सृष्टि संचालन में सहायता हेतु ग्रहण किया था ।
एक बार मनु कुलोत्पन्न राजा रिपुञ्जय ने अपनी क िन साधना से मन तथा इन्द्रियों को वश में कर लिया । उनकी साधना से सन्तुष्ट होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें सम्पूर्ण पृथ्वीलोक पर प्रजापालन और नागराज वासुकि की कन्या अनंग-मिहिनी के साथ विवाह की आज्ञा दी ।
ब्रह्मा जी की आज्ञा को सुनकर रिपुंजय मे कहा, “मैं आपका यह आदेश स्वीकार करता हूँ, लेकिन मेरी यह शर्त है कि जब तक पृथ्वी पर मेरा शासन रहेगा, तब तक सभी देवता केवल स्वर्ग में ही निवास करेंगे । वे पृथ्वी पर कभी नहीं आएँगे ।” ब्रह्मा जी ने “तथास्तु” कहा । अग्नि, सूर्य, इन्द्र इत्यादि सब पृथ्वी से अंतर्धान हो गये तो रिपुंजय ने प्रजा के सुख के लिए उन सबका रूप धारण किया। यह देखकर देवता बहुत लज्जित हुए। राजा रिपुंजय समस्त पृथ्वी पर शासन करने के कारण ‘दिवोदास’ के नाम से प्रसिद्ध हुए । उन्होंने काशी को अपनी राजधानी बनाया । उनके शासन में अपराध का कहीं नामो-निशान नहीं था । असुर भी मनुष्य के वेश में आकर राजा की सेवा में उपस्थित होते थे । सर्वत्र धर्म की प्रधानता थी ।
उधर, पृथ्वी पर अपना आवास छूटने के कारण समस्त देवता और भगवान् शिव अत्यधिक दुःखी थे । सभी इस उधेड़-बुन मे लग गये कि किसी तरह राजा रिपुंजय के राज में कमी ढूँढ़कर उन्हें अपदस्थ करें । इसी प्रयास में देवताओं ने कई प्रकार के विघ्न उपस्थित किए, लेकिन कोई भी बाधा रिपुंजय के सामने टिक नहीं पायी । दिवोदास को पथभ्रष्ट करने के लिए शिव ने क्रमश: ६४ योगिनियों, सूर्य, ब्रह्मा, गणों आदि को भूस्थित काशी भेजा । इस प्रकार कई देवता पृथ्वी पर आए और सभी यहीं निवास करने लगे । तब भगवान् शिव ने अपने पुत्र श्रीगणेश को काशी जाने की आज्ञा दी । भगवान् श्रीगणेश ने आपना आवास एक मन्दिर में बनाया तथा वे स्वयं एक वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण कर काशी में रहने लगे । लोग उनके पास अपना भविष्य जानने के लिये आने लगे । धीरे-धीरे उनकी कीर्ति तथा प्रसिद्धि राजा रिपुंजय तक पहूँची तो उन्होंने वृद्ध ज्योतिषी को अपने यहाँ आमंत्रित किया । वृद्ध ज्योतिषी के आने पर रिपुंजय ने निवेदन किया कि, “इस समय मेरा मन भौतिक पदार्थों एवं सभी कर्मों से विरक्त हो रहा है । इसलिए आप भली-भाँति विचार कर मेरे भविष्य का वर्णन कीजिए ।” तब उन वृद्ध ज्योतिषी ने कहा कि, “आज से १८वें दिन उत्तर दिशा की ओर से एक तेजस्वी ब्राह्मण पधारेंगे और वे ही तुम्हें उपदेश देकर तुम्हारा भविष्य निश्चित करेंगे ।”
भगवान् गणेश ने सम्पूर्ण काशी नगरी को अपने वश में कर लिया । राजा रिपुंजय से दूर रहकर भी भगवान् गणेश ने उनके चित्त को राज्य से विरक्त कर दिया । १८वें दिन भगवान् विष्णु ने ब्राह्मण का वेश धारण करके अपना नाम पुण्यकीर्त, गरुड़ का नाम विनयकीर्त तथा लक्ष्मी का नाम गोमोक्ष प्रसिद्ध किया। वे स्वयं गुरु रूप में तथा उन दोनों को चेलों के रूप में लेकर काशी पहुंचे।
राजा को समाचार मिला तो गणपति की बात को स्मरण करके उसने पुण्यकीर्त का स्वागत करके उपदेश सुना। पुण्यकीर्त ने हिन्दू धर्म का खंडन करके बौद्ध धर्म का मंडन किया। प्रजा सहित राजा बौद्ध धर्म का पालन करके अपने धर्म से च्युत हो गया। पुण्यकीर्त ने राजा दिवोदास से कहा कि सात दिन उपरांत उसे शिवलोक चले जाना चाहिए। उससे पूर्व शिवलिंग की स्थापना भी आवश्यक है । श्रद्धालु राजा ने उसके कथनानुसार ‘दिवोदासेश्वर लिंग’ की स्थापना एवं विधि-पूर्वक पूजा-अर्चना करवाई । गरुड़ विष्णु के संदेशस्वरूप समस्त घटना का विस्तृत वर्णन करने शिव के सम्मुख गये। तदुपरांत दिवोदास ने शिवलोक प्राप्त किया तथा देवतागण काशी में अंश रूप से रहने के पुन: अधिकारी बने ।