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मन हमारा जौहरी है

 

जौहरी इसलिए कि हर चीज का मूल्य आंकता रहता है। जो देखता है, तत्क्षण निर्णय करता है, सुंदर है कि असुंदर, शुभ है कि अशुभ, करणीय कि अकरणीय, सत्य कि झूठ! मन का सारा काम ही निर्णायक का काम है। अगर निर्णय न छूटा तो मन के पार गए नहीं। इसलिए जीसस ने कहा है जज ई नाट। निर्णय ही मत करना। निर्णय किया कि मन के कब्जे में आ गए। वह जौहरी! वह बैठा भीतर। वह कसता रहता है अपने कसने के पत्थर पर हर चीज को, कि सोना है कि नहीं है। हीरा है कि नहीं है। मन तो एक तराजू है जो तोलता रहता, तोलता रहता है। इसे तुम जांचो।

गुलाब का फूल देखा, देख भी नहीं पाए ठीक से कि फौरन मन कह देता है--सुंदर! अभी देखना भी पूरा नहीं हुआ कि शब्द बन जाता है। कहीं गंदगी का ढेर लगा देखा, अभी गंध, दुर्गंध नासापुटों तक पहुंची ही थी कि मन तत्क्षण कह देता है कि कुरूप, गंदगी, बचो!

मन के निर्णय करने की यह जो आदत है, यह तुम्हें जीवन के सत्य को देखने ही नहीं देती। मन अपनी पुरानी बातें ही दोहराए चला जाता है, थोपे। चला जाता है। किसी नए तथ्य का आविष्कार नहीं हो पाता क्योंकि मन तो है अतीत। मन तो है तुम्हारा पिछला अनुभव का जोड़ तोड़ । मन तो है तुमने जो अब तक जाना, सुना, समझा। उस सोचे, सुने, समझे को ही मन नए तथ्यों पर आरोपित करता जाता है।

 

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