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मैं अज्ञानी नहीं हूँ

 

एक ज्ञानी एक चर्च में गया, एक पादरी। और जो भी धर्मशास्त्र पढ़ लेते हैं, वे ज्ञानी हो जाते हैं! ज्ञानी होना बड़ा सरल है! है नहीं, मान लेना बहुत सरल है। उस पादरी को खयाल है कि मैं जानता हूं। आते ही उसने पहली धाक लोगों पर जमा देनी चाही। उसने खड़े होकर लोगों से कहा कि मैं तुमको समझाऊंगा बाद में, पहले मैं यह पूछ लूं कि तुम में कोई अज्ञानी हो, तो खड़ा हो जाए।

कौन खड़ा होता! लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। जैसे मैं आपसे पूछूं कि कोई अज्ञानी हो, तो खड़ा हो जाए। तो जो जिसको अज्ञानी समझता होगा–अपने को छोड़कर ही समझेगा सदा–वह उसकी तरफ देखेगा कि फलां खड़ा हो रहा है कि नहीं? अब तक खड़ा नहीं हुआ! पत्नी पति की तरफ देखेगी, पति पत्नी की तरफ देखेगा; बाप बेटे की तरफ देखेगा, बेटा बाप की तरफ देखेगा कि अभी तक खड़े नहीं हो रहे! कोई खड़ा नहीं होगा।

कोई खड़ा नहीं हुआ। उस पादरी ने कहा, कोई भी अज्ञानी नहीं है? धक्का लगा उसे। क्योंकि वह सोचता था, वह ज्ञानी है। और जब कोई भी खड़ा नहीं होता, तो सभी ज्ञानी हैं! तभी एक डरा हुआ सा आदमी, बहुत दीन-हीन सा आदमी झिझकता हुआ, चुपचाप उठकर खड़ा हो गया। उस पादरी ने कहा, आश्चर्य! चलो, एक आदमी तो अज्ञानी मिला। क्या तुम अपने को अज्ञानी समझते हो? उसने कहा कि नहीं महानुभाव, आपको अकेला खड़ा देखकर मुझे बड़ी शर्म मालूम पड़ती है, इसलिए मैं खड़ा हो गया हूं। आप अकेले ही खड़े हैं! अच्छा नहीं मालूम पड़ता, शिष्टाचार नहीं मालूम पड़ता। आप अजनबी हैं, बाहर से आए हैं। इसलिए मैं खड़ा हो गया हूं, अज्ञानी मैं नहीं हूं।

इस पृथ्वी पर कोई अपने को अज्ञानी मानने को राजी नहीं है। कोई अपने को भोगी मानने को राजी नहीं है। कोई अपने को अहंकारी मानने को राजी नहीं है। कोई अपने को ममत्व से घिरा है, ऐसा मानने को राजी नहीं है। और सब ऐसे हैं। और जब बीमारी अस्वीकार की जाए, तो उसे ठीक करना मुश्किल हो जाता है। बीमारी स्वीकार की जाए, तो उसका इलाज हो सकता है, निदान हो सकता है, चिकित्सा हो सकती है।

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