सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाने पर जिनमे सबसे पहले आती है तामसिक इच्छाएं, फिर आती है राजसिक, और अंत में आती है सात्विक इच्छाएं। जब तक व्यक्ति की तामसिक और राजसिक इच्छाएं पूरी नहीं होती हैं तब तक सात्विक इच्छाओं का त्याग करना सही नहीं माना जाता है। सात्विक इच्छाओं से अर्थ है धार्मिक कर्म करने की इच्छा क्योंकि पुण्यों का फल स्वर्ग होता है, मोक्ष नहीं। स्वर्ग का मतलब होता है कुछ समय का ऐशो आराम और फिर से मर्त्यलोक का अंधकार जबकि नरक का मतलब है कुछ समय की पीड़ा कष्ट, और फिर से मर्त्यलोक का अन्धकार रुपी जीवन। अतः स्वर्ग और नरक का जीवन एक काल खंड का भोग ही है जिसका अंतिम पड़ाव एक ही है —
पुरातन काल में भारत में “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” का प्रयोग खेतों की सिंचाई करने में भी किया जाता था। कूँए से अनेक घड़ों की एक श्रंखला पानी ऊपर भरकर लाती थी और नाली में पलटकर खाली घड़े पुनः नीचे पानी लेने चले जाते थे, बैलों के द्वारा घड़ों की उन श्रंख्लाओं को घुमाया जाता था। इसी प्रकार जीव भी अपने द्वारा किये गए कर्मों का फल भोगने के लिये नीचे मर्त्यलोक में गिरता था और उन फलों के खत्म होने पर मर्त्यलोक से निकलकर ऊपर आता था लेकिन मर्त्यलोक में किये गए नये कर्मों को स्वर्ग या नरक भोगने के बाद फिर से मर्त्यलोक में भोगने जाता था। प्राचीन अद्वैतवादी ग्रन्थों में भी “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” के माध्यम से जन्म−मरण की इस अनवरत चलने वाली श्रंखला को बहुत अच्छे से समझाया गया है। इस अनवरत श्रृंखला को समाप्त करने अथवा तोड़ने का केवल एक ही तरीका है और वो है इच्छाओं का त्याग। इच्छाएं नहीं होंगी तो नये सकाम कर्म भी नहीं किये जायेंगे तब उनका फल भोगने के लिये जन्म−मरण के चक्र में बारम्बार फँसना भी नहीं पड़ेगा।
इच्छाएं ईश्वर को समर्पित करके जीव को निष्काम कर्म करते हुए अपना बचा हुआ जीवन व्यतीत करना चाहिए। ईच्छाओं का त्याग सिर्फ दो साधनों द्वारा ही सम्भव बताया गया है और वो है — अभ्यास तथा स्थिरता। स्थिरता अथवा स्थायित्व का मतलब होता है ऐन्द्रिक तुष्टि(इन्द्रियों की संतुष्टि) वाले सांसारिक विषयों की ओर मन के आकर्षण को समाप्त कर लेना और अभ्यास का मतलब है ऐसा हर संभव प्रयास करना जिसके द्वारा स्थिरता मन की स्वाभाविक स्थिति बन जाये।
सकाम कर्म के दो फल होते हैं। पहला फल तो वह होता है जिसे पाने के लिये वह कर्म किया गया, भले ही वह फल प्राप्त हो सके या न हो सके। दूसरा फल होता है उसी प्रकार के नये सकाम कर्म करने की इच्छा को और शक्तिशाली बना देना। यह दूसरा फल ही अगले समस्त कर्मफलों के उस संग्रह में जुड़ता है जिसे “संस्कार” कहा जाता हैं। वैदिक संस्कारों अर्थात् अच्छे संस्कारों के अनुसार कर्म करना ही वास्तविक “धर्म” कहा गया हैं। कर्मो का सही से पालन करने की विधि ही “कर्मकाण्ड” है। कर्मकाण्ड द्वारा पालन किये गए कर्तव्यों से कर्मों के उपयुक्त फल की भी प्राप्ति होती हैं और उनके फल जीव को बन्धन में भी नहीं बाँधते है। कर्मकाण्ड को सकाम कर्म का साधन बना लेना कलयुग में मनुष्य में आयी विकृति का परिणाम है जिसके कारण सनातन धर्म की हानि हुई है। सांसारिक इच्छाओं, वासनाओं की पूर्ति के लिये कर्मकाण्ड नहीं बनाये गए हैं। कर्मकाण्ड का प्रयोग सिर्फ कर्तव्यों के पालन और धर्म की रक्षा के लिए ही किया जाना चाहिये।
अन्यथा वैदिक यज्ञ जैसे महान कर्तव्य भी सकाम कर्म बनकर बन्धन में डाल देंगे। “संस्कार” के वृहद स्वरुप के पूर्णतया भस्म होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। किसी व्यक्ति में इतनी शक्ति तो नहीं है कि चौरासी लाख योनियों में अपने प्रत्येक जन्म की अवधि में किये गये सभी कर्मों के फलों को अपने जप−तप आदि के जरिये भस्म कर सके।
किन्तु संस्कारों के माध्यम से कुछ कर्मो के राख हो जाने पर सात्विकता बढ़ जाती है। मन की स्वाभाविक प्रवृति सात्विक हो जाने पर प्रभु जीवात्मा को स्वतः खींचने लगते हैं। बिना भगवत कृपा के संस्कारों के अन्नंत प्रवाह वाली वैतरणी की विपरीत − वैतरणी को तैरना जीव के वश की बात नहीं है। सही शिक्षा, अच्छे कर्म और सच्ची भक्ति — तीनों बलपूर्वक ही आरंभ किये जाते हैं, तब जीव स्वयं को सही शिक्षा के मार्ग में स्थिर रखाना सीख पाता है। मोक्ष ही साध्य है, कर्म और भक्ति साधन हैं, किन्तु साधन के बिना साध्य की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
अपने सच्चे स्वरूप के साथ जुड़ना ही “योग” कहा गया है, जिसके ‘अभ्यास’ का सर्वोत्तम साधन है महर्षि पतञ्जलि का दिया गया “योगसूत्र”, जिस पर सर्वोत्तम भाष्य है महर्षि वेदव्यास का। हिन्दी भाषा में इसका बेहतरीन और सबसे अच्छा टीका है स्वामी ओमानन्द तीर्थ द्वारा लिखित और गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित “पातञ्जल योग प्रदीप” जिसमें मूल योगसूत्र का मतलब बताया गया है। साथ ही व्यासभाष्य को समझाने का भी पूरा प्रयास किया गया है और स्वामी ओमानन्द तीर्थ द्वारा बताई गयी सारी बातें उपयोगी है। किन्तु महिर्षि पतञ्जलि और महिर्षि वेदव्यास के सम्मुख उनकी बातें अधिक महत्व नहीं रखती और उन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है।