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रामकृष्ण और पूजा

 

असल में पूजा का ढंग होता ही नहीं। जब पूजा ढंग से होती है, तो झूठी होती है।

रामकृष्ण कभी पूजा करते थे, 
कभी नहीं करते थे। और कभी दो—दो, चार—चार दिन तक मंदिर का दरवाजा बंद ही रहता। और कभी चौबीस घंटे नाचते रहते। मंदिर के अधिकारियों ने समिति बुलायी। उन्होंने कहा कि यह पुजारी तो ढंग का नहीं है। यह कैसी पूजा?

रामकृष्ण को बुलाया, पूछा कि यह कैसी पूजा? रामकृष्ण ने कहा कि जब होती है तब होती है, जब नहीं होती तब नहीं होती। झूठी नहीं करूँगा। जब मेंरा हृदय नहीं पुकार रहा है, तब मैं कैसे पुकारूँ? मेरे होंठ कुछ कहें और मेरा हृदय कुछ कहे, यह मुझसे नहीं होगा। अपनी नौकरी सँभालो!

नौकरी भी क्या थी! चौदह रुपये महीने मिलते थे। खैर, उन दिनों चौदह रुपये बहुत थे। ट्रस्टी ज़रा हैरान हुए, क्योंकि कोई इतनी आसानी से नौकरी नहीं छोड़ देता। लेकिन रामकृष्ण ने कहा कि पूजा जब होगी तब होगी, हाँ कभी—कभी जब पूजा होती है तो आधी रात में भी फिर मैं यह थोड़े ही सोचता हूँ कि यह कोई वक्त है! आधी रात को धुन बँध जाती है, आधी रात तार जुड़ जाते हैं, तो आधी रात दरवाजा खोल लेता हूँ। अब इससे पास—पड़ोस के लोग भी परेशान थे कि आधी रात पूजा होने लगी! कभी दिन—भर पूजा नहीं होती। यह क्या पूजा का ढंग है?

असल में पूजा का ढंग होता ही नहीं। जब पूजा ढंग से होती है, तो झूठी होती है। पूजा की तो एक सरलता होती है, एक सहजता होती है। एक हृदय की उमंग है। एक हवा का झोंका है। अज्ञात से आता है, नचा जाता है, तब एक सचाई है। उस सचाई में परमात्मा से मिलन है। लेकिन तुम्हारे सब आचार झूठे हैं, नियोजित हैं, व्यवस्थित हैं। तुमने सब भाँति उनका अभ्यास कर लिया है। अभ्यास से बचना। अभ्यास से आदमी झूठा हो जाता है अभ्यास से आदमी पाखंडी हो जाता है। अभ्यास से मत जीना, सहजता से जीना, सरलता से जीना|

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