जो विद्या नामक धन चोर के दृष्टिगोचर नहीं होता, जो सदा मनुष्य का हित या सुख बढ़ाता है, जो निरन्तर विद्यार्थियों को देने पर भी बढ़ता जाता है, जो धन प्रलय में भी (युगान्त में भी) नष्ट नहीं होता, वह विद्या नामक गुप्त धन जिन विद्वानों के पास है, हे राजाओं ! उनके सामने अभिमान की भावना छोड़ दो । ऐसे विद्वानों के साथ कौन स्पर्धा कर सकता है ?
अर्थात् विद्या गुप्त धन है । भौतिक सम्पत्ति उसके सामने तुच्छ होती है । विद्या धन में अनेक विशेषतायें होती है । इसे चोर नहीं छीन सकता । यह धन निरन्तर हमारे सुख में वृद्धि करता है । अन्य धन तो व्यय करने से घट जाते हैं, किन्तु विद्याधन जितना विद्यार्थियों को बाँटा जाता है, उतना ही बढ़ता जाता है । ज्ञान तो प्रलय में भी नष्ट नहीं होता । कवि राजाओं को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि आप विद्यावैभव से सम्पन्न विद्वानों के सामने कभी मिथ्या गर्व का प्रदर्शन मत करो । कोई भी धनिक व्यक्ति विद्वानों की तुलना में नहीं हरता । विद्वानों से स्पर्धा करना अनुचित है । विद्वान तो सम्मान के पात्र होते हैं ।