करुणा निधान प्रभु श्री राम जी जिस पर प्रसन्न हो गये, वही सच्चा पुण्यात्मा है और वही पवित्र है। कर्म से एक वेश्या (पिंगला), पक्षी के रूप में एक गीध (जटायु) और बहेलिया जाति में जन्मे (वाल्मीकि) जिन्होंने परम धाम श्री वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति की श्री राम के प्रेम से क्योंकि न तो उन्होंने कभी प्रयाग में जाकर कोई तप किया और न ही वो कण्डों की अग्नि में जलकर मरे?
राजा नृग तो कभी भी वेदोक्त मार्ग से नहीं डिगा था, किन्तु सभी को ज्ञात है, उसको कितने दुःखों का सामना करना पड़ा। गिरगिट जैसे जीव की योनि पाकर हजारों वर्ष एक कुएँ में पड़ा हुआ सड़ता रहा और दूसरी और वो गज(हाथी) कौन सा दीक्षित था, जिसके द्वारा एक बार याद करने पर ही प्रभु अपने वाहन गरुड़ को लेकर सुदर्शन चक्र लिये दौड़े आये थे।
देवता, मुनि और ब्राह्मणों के उच्च कुलों को छोड़कर आप ने गोकुल में एक ग्वाल (नन्दजी) के घर में जन्म लिया। कौरव राजा दुर्योधन के ऐश्वर्य में बैठकर 56 भोग खाने के बजाय आपने निर्धन विदुर के घर में जाकर (साग - भाजी) का भोजन खाना स्वीकार किया। भगवान को अपने अनन्य प्रेमी भक्तों का साथ बहुत ही अधिक प्रिय हैं। अपने इसी इस अनन्य प्रेम-भक्ति की रीति कुछ-कुछ प्रभु ने अपने प्रिय अर्जुन को भी बतायी थी। तुलसीदास जी भी कहते है प्रभु श्री राम चंद्र जी तो सरल स्वाभाविक विशुद्ध प्रेम के आधीन रहते हैं। इस विशुद्ध प्रेम के अलावा दूसरे जितने भी साधन हैं वे ऐसे हैं, जैसे पानी की चिकनाई! (जिस प्रकार पानी पड़ने पर, शरीर को कुछ देर के लिये चिकनापन - सा अनुभव होता है, पर पानी के सूखने पर फिर से सबकुछ ज्यों-का-त्यों रूखा ही हो जाता है। ठीक इसी प्रकार दूसरे साधनों से जीव एक कामना की पूर्ति होने पर क्षणिक सुख तो मिल जाता है, परन्तु दूसरी नयी कामना के उत्पन्न होते ही वह मिट जाता है। वही विशुद्ध भक्ति प्रेम की विरह, पीड़ा और मिलन सभी स्थितियां आनंद प्रदान कने वाली होती है सुख प्रदायक है।