राधा मां को मोक्ष धाम की प्राप्ति भगवान श्री कृष्ण ने ही करवाई थी। अपने जीवन के आखरी समय में राधा मां की यही इच्छा थी कि उनको श्री कृष्ण के सुंदर अधरों से एक बार बाँसुरी का स्वर सुने। माता राधा की विनती पर प्रभु श्री कृष्ण ने उनकी ये इच्छा पूरी भी की। फिर जब माता राधा परलोक सुधार गई तो भगवान श्री कृष्ण ने अपनी प्रिय मुरली को भी तोड़कर फेंक दिया था जिसके बाद कभी भी उन्होंने मुरली नही बजायी। साथ ही यह प्रतिज्ञा भी ली कि अब वो कभी भी मुरली को हाथ नहीं लगाएंगे।
प्रभु श्री कृष्ण के द्वारा शरीर का त्याग देने के बाद पहले उनकी अर्थी का श्रृंगार किया गया और जब व्याध उनकी चिता को अग्नि देने जा रहे थे तभी बादलो में से एक आकाशवाणी हुई कि चिता को आग नहीं लगाना और तब व्याध द्वारा चिता को अग्नि न देने का निर्णय लिया गया। श्री कृष्ण के उस पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार फिर बाद में उसके पिता श्री वसुदेव द्वारा किया गया। संस्कार के पश्चात कहा जाता कि श्री कृष्ण का सारा शरीर शरीर तो जलकर राख हो गया किन्तु श्रीकृष्ण का हृदय फिर भी सप्राण रहा और श्रीकृष्ण का हृदय जला नहीं जिसे बाद में अरब सागर में प्रवाहित किया गया। प्रभु का हृदय वह जीवित हृदय बहकर बंगाल की खाड़ी में पहुँच गया, जहाँ पर प्रभु के ह्रदय के उस हिस्से को किसी नाविक ने देखकर ज्यों ही बाहर निकालने के लिए हाथ में उठाया त्यों ही वह जीवित हृदय लकड़ी में परिवर्तित हो गया। इसी लकड़ी से ही भगवान श्री जगन्नाथ की मूर्ति और भगवान् बलभद्र और माता सुभद्रा की मूर्तियां तैयार की गई।
एक बार प्रभु श्री कृष्ण वाराणसी आये थे जहाँ उन्होंने वहां पर पहले से ही रहने वाले शंकु नामक एक क्रूर दैत्य को मल्ल युद्ध में हरा दिया था। यह मल्ल युद्ध एक तालाब में हुआ था जिसका का नाम संकुल धारा पोखरा है। शानकुलेश्वर महादेव नाम का एक प्रसिद्द मंदिर भी इसके पास है यहाँ पर श्रद्धालु आमतौर पर दर्शन करने जाते रहते हैं।
प्रभु श्रीकृष्ण की आयु जब उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया तो 125 साल की थी।
एक व्याध के हाथों तीर लगने से भी प्रभु श्रीकृष्ण के शरीर का अंत होगा ये एक अभिशाप का ही प्रतिफल था। जो उनको त्रेता युग के समय राम अवतार में दिया गया था। कि उनकी भी अकाल मृत्यु होगी। वह व्याध भी कोई और नहीं, बल्कि पूर्व जन्म में श्री राम द्वारा मारा गया बाली ही था।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्री राम 12 कलाओं से पूर्ण थे। जबकि प्रभु श्री कृष्ण को सभी 16 कलाओं का ज्ञान था।अभी भी वृंदावन में प्रभु श्री कृष्ण गोपीयो के साथ रास रचाने के लिए आते हैं जिसके बहुत से प्रत्यक्ष प्रमाण भी वहां पर मौजूद है।
यदि प्रभु श्री कृष्ण के विषय में चर्चा की जाए तो प्रत्येक इंसान कोई न कोई वक्तव्य अवश्य दे देगा। क्योंकि श्री कृष्ण वह नाम है जिसकी बातें हर गली, मुहल्ले, नुक्कड़, घर में हर कोई कभी न कभी करता ही है। क्योंकि श्री कृष्ण का जीवन स्वयं में शिक्षा प्रदान करने वाला और जीवन को जीने की राह दिखाने वाला है।
कोई भी इंसान सीख़ लेकर प्रभु श्री कृष्ण के जीवन चरित्र से अपने जिंदगी में कामयाबी की रास्ता हासिल कर, जिन्दगी को श्रेष्ठतर बनाने, और अपने जीवन को खुशियों से भर लेने का रास्ता स्वयं विस्तारित कर लेता हैं। प्रभु श्री कृष्ण का जीवन एक साधारण व्यक्ति के लिए जीवन की विषम परिस्थितियों में सही फैसला लेने के लिए प्रेरित करता हैं। गांव हो या शहर क्लोनियाँ सभी जगह बिहारी जी मंदिर होता है। जहाँ राधे कृष्ण जी की सूंदर प्रतिमा होती है जिसे प्यार का प्रतीक मानकर सभी नवविवाहित जोड़े उस मंदिर में आराधना करने जाते है।
राधा कृष्ण को प्रेम का प्रतीक मानने वालो को यह जानकर ताज्जुब होगा कि आज से लगभग 700 साल पहले कोई भी कृष्ण भक्त या वेदों का ज्ञाता यह नहीं जानता था कि श्री कृष्ण के जीवन में राधा नाम की कोई लड़की कृष्ण की जिंदगी में थी। लेकिन निम्बार्क संप्रदाय ने 700 साल पहले राधा कृष्ण की आराधना आरम्भ की और यही वह समय था जब गीत गोविंद की रचना की गयी, जिसमें राधा कृष्ण का उल्लेख हुआ और यह तीव्रता के साथ प्रसिद्द हो गया। प्रभु कृष्ण की प्रस्तुति भगवतगीता है जिसमे कही पर भी राधा शब्द का कोई प्रयोग नहीं हुआ है, जिसके अनुसार इस विषय पर कुछ नहीं कहा जा सकता है कि राधा नाम की कोई भी लड़की श्री कृष्ण के जीवन में कभी नहीं आई थी।
राधा और कृष्ण आज समाज में पूजे जाते है और सच्चे निस्वार्थ प्रेम का प्रतीक कहे जाते है। किन्तु निम्बार्क संप्रदाय के द्वारा राधा और कृष्ण की पूजा भगवान् और भक्त के रूप में ही की जाती हैं। इस संप्रदाय का मानना है कि युवा अवस्था में राधा ही श्री कृष्ण की पत्नी हुई होगी। क्योंकि निम्बार्क संप्रदाय राधा के कृष्ण की प्रेमिका होने की बात नहीं करता हैं।