महर्षि गालव जब प्रातः सूर्यार्घ्य प्रदान कर रहे थे, उनकी अञ्जलि में आकाशमार्ग से जाते हुए चित्रसेन की थूकी हुई पीक गिर पड़ी । मुनि को इससे बड़ा क्रोध हुआ । वे उसे शाप देना ही चाहते थे कि उन्हें अपने तपोनाश का ध्यान आ गया और रुक गये । उन्होंने जाकर अगवान् श्रीकृष्ण से फरियाद की । श्यामसुन्दर तो ब्रह्मण्यदेव हरे ही, झट प्रतिज्ञा कर ली – चौबीस घंटे के भीतर चित्रसेन को वध कर देने की । ऋषि को पूर्ण सन्तुष्ट करने के लिए उन्होंने माता देवकी तथा महर्षि के चरणों की शपथ भी ले ली ।
गालवजी अभी लौटे ही थे कि देवर्षि नारद वीणा झनकारते पहुँच गये । भगवान् ने उनका स्वागत-आतिथ्य किया । शान्त होने पर नारदजी ने कहा - ‘प्रभो ! आप तो परमानन्दकन्द कहे जाते हैं, आपके दर्शन से लोग विषाद मु्क्त हो जाते हैं; पर पता नहीं क्यों आज आपके मुख-कमल पर विषाद की रेखा दीख रही है ।’ इसपर श्यामसुन्दर ने गालवजी के सारे प्रसंग को सुनाकर अपनी प्रतिज्ञा सुनायी । अब नारदजी को कैसा चैन ? आनन्द आ गया । झटपट चले और पहुँचे चित्रसेन के पास । चित्रसेन भी उनके चरणों में गिरकर अपनी कुण्डली आदि लाकर ग्रहदशा पूछने लगा । नारदजी ने कहा – ‘अरे ! तुम अब यह सब क्या पूछ रहे हो ? तुम्हारा अन्तकाल निकट आ पहुँचा है । अपना कल्याण चाहते हो तो बस, कुछ दान-पुण्य कर लो । चौबीस घंटों में श्रीकृष्ण ने तुम्हें मार डालने की प्रतिज्ञा कर ली है ।’
अब तो बेचारा गन्धर्व घबराया । वह लगा दौड़ने इधर-उधर । ब्रह्मधाम, शिवपुरी, इन्द्र-यम-वरुण सभी के लोकों में दौड़ता फिरा; पर किसी ने उसे अपने यहाँ हरने न दिया । श्रीकृष्ण से शत्रुता कौन उधार ले । अब बेचारा गन्धर्वराज अपनी रोती-पीटती स्त्रियों के साथ नारदजी की ही शरण में आया । नारदजी दयालु तो हरे ही; बोले ‘अच्छा चलो यमुना तटपर ।’ वहाँ जाकर एक स्थान को दिखलाकर कहा ‘ आज आधी रात को यहाँ एक स्त्री आयेगी । उस समय तुम ऊँचे स्वर से विलाप करते रहना । वह स्त्री तुम्हें बचा लेगी । पर ध्यान रखना – जब तक तुम्हारे कष्ट दूर कर देने की प्रतिज्ञा न कर ले, तब तक तुम अपने कष्ट का कारण भूलकर भी मत बताना ।’
नारदजी भी विचित्र हरे । एक ओर तो चित्रसेन को यह समझाया, दूसरी ओर पहुँच गये अर्जुन के महल में सुभद्रा के पास । उससे बोले – ‘सुभद्रे ! आज का पर्व बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । आज आधी रात को यमुना-स्नान करने तथा किसी दीन की रक्षा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होगी ।’
आधी रात का अवसर हुआ । सुभद्रा दो-एक सखियों के साथ यमुना-स्नान को पहुँची । वहाँ उन्हें रोने का करुण-स्वर सुनायी पड़ा । नारदजी ने दीनोद्धार का माहात्म्य बतला ही रखा था । सुभद्रा ने सोचा – ‘चलो, अक्षय पुण्य लूट ही लूँ ।’ वे तुरन्त उधर गयीं, तो चित्रसेन रोता मिला । उन्होंने लाख पूछा, पर वह बिना प्रतिज्ञा के बतलाये ही नहीं । अन्त में इनके प्रतिज्ञाबद्ध होने पर उसने स्थिति स्पष्ट की । अब तो यह सुनकर सुभद्रा बड़े धर्मसंकट और असमंजस में पड़ गयी । एक ओर श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा – वह भी ब्राह्मण के हित के लिये, दूसरी ओर अपनी प्रतिज्ञा । अन्त में शरणागतत्राण का निश्चय करके वे उसे अपने साथ ले आयीं । घर आकर उन्होंने सारी परिस्थिति अर्जुन के सामने रखी । (अर्जुन का चित्रसेन मित्र भी था।) अर्जुन ने सुभद्रा को सान्त्वना दी और कहा कि ‘तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी ।’
नारदजी ने इधर जब यह सब ीक कर लिया, तब द्वारका पहुँचे और श्रीकृष्णचन्द्र से कह दिया कि ‘महाराज ! अर्जुन ने चित्रसेन को आश्रय दे रखा है, इसलिये आप सोच-विचारकर ही युद्ध के लिये चलें ।’ भगवान् ने कहा – ‘नारदजी ! एक बार आप मेरी ओर से अर्जुन को समझाकर लौटाने की चेष्टा तो कर देखिये ।’ अब देवर्षि पुनः दौड़े हुए द्वारका से इन्द्रप्रस्थ पहुँचे । अर्जुन ने सब सुनकर साफ कह दिया -‘यद्यपि मैं सब प्रकार से श्रीकृष्ण की ही शरण हूँ और मेरे पास केवल उन्हीं का बल है, तथापि अब तो उनके दिये हुए उपदेश -क्षात्र-धर्म से कभी विमुख न होने की बात पर ही दृढ़ हूँ । मैं उनके बल पर ही अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करुँगा । प्रतिज्ञा छोड़ने में तो वे ही समर्थ हैं ।’ दौड़कर देवर्षि अब द्वारका आये और ज्यों-का-त्यों अर्जुन का वृत्तान्त कह सुनाया । अब क्या हो ? युद्ध की तैयारी हुई । सभी यादव और पाण्डव रणक्षेत्र में पूरी सेना के साथ उपस्थित हुए । तुमुल युद्ध छिड़ गया । बड़ी घमासान लड़ाई हुई । पर कोई जीत नहीं सका । अन्त में श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र छोड़ा । अर्जुन ने पाशुपतास्त्र छोड़ दिया । प्रलय के लक्षण देखकर अर्जुन ने भगवान् शंकर को स्मरण किया । उन्होंने दोंनो शस्त्रों को मनाया । फिर वे भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण के पास पहुँचे और कहने लगे – ‘प्रभो !‘ राम सदा सेवक रुचि राखी । बेद पुरान लोक सब साखी ।।’ – भक्तों की बात के आगे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाना तो आपका सहज स्वभाव है । इसकी तो असंख्य आवृत्तियाँ हुई होंगी । अब तो इस लीला का संवरण कीजिये ।’
बाण समाप्त हो गये । प्रभु युद्ध से विरत हो गये । अर्जुन को गले लगाकर उन्होंने युद्धश्रम से मुक्त किया, चित्रसेन को अभय दिया । सब लोग धन्य-धन्य कर उ े । पर गालवजी को यह बात अच्छी नहीं लगी । उन्होंने कहा, ‘यह तो अच्छा मजाक रहा ।’ स्वच्छ हृदय के ऋषि बोल उ े -‘लो, मैं अपनी शक्ति प्रकट करता हूँ । मैं कृष्ण, अर्जुन, सुभद्रा समेत चित्रसेन को जला डालता हूँ ।’ पर बेचारे साधु ने ज्यों ही जल हाथ में लिया, सुभद्रा बोल उ ीं – ‘मैं यदि कृष्ण की भक्त होऊँ और अर्जुन के प्रति मेरा पातिव्रत्य पूर्ण हो, तो यह जल ऋषि के हाथ से पृथ्वी पर न गिरे ।’ ऐसा ही हुआ । गालव बड़े लज्जित हुए । उन्होंने प्रभु को नमस्कार किया और वे अपने स्थान को लौट गये । तदनन्तर सभी अपने-अपने स्थान को पधारे ।
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बँगला की एक पुस्तक में अर्जुन-कृष्ण-युद्ध की एक और न्यारी कथा आती है । कहते हैं कि महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण उर्वशी को एक बार घोड़ी हो जाना पड़ा था । दिनभर तो उसकी शक्ल घोड़ी की रहती, पर रात को वह अपने रुप में लौट आती । इसी दशा में वह अवन्ती-नरेश दण्डी के पास रह रही थी । नारदजी ने श्रीकृष्ण को समझाया कि ‘आप यदि इस घोड़ी को अवन्ती नरेश से ले लें, तो बड़ा अच्छा रहे । इस घोड़ी में बड़े मांगलिक लक्षण हैं ।’ भगवान् ने दण्डी के यहाँ खबर भेजी । दण्डी ने इसे अस्वीकार कर दिया । भगवान् ने कहा - ‘तो फिर युद्ध के लिये तैयार हो जाओ ।’ अब दण्डी उस घोड़ी के साथ भागता हुआ सबके शरण गया । पर कौन रखे श्रीकृष्ण-द्रोही को ? अन्त में अर्जुन-सुभद्रा ने उसे शरण दी । युद्ध छिड़ गया । बड़ा घमासान हुआ । शेष में दुर्वासा ने आकर उर्वशी को शापमुक्त कर दिया और सारा झगड़ा वहीं समाप्त हो गया । कल्पभेद से दोनों ही वर्णन सत्य हो सकते हैं ।
Posted Comments |
" जीवन में उतारने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कई लोग तो इस संबंध में कुछ जानते ही नहीं है । ऐसे लोगों के लिए यह अत्यन्त शिक्षा प्रद जानकारी है ।" |
Posted By: संतोष ठाकुर |
"om namh shivay..." |
Posted By: krishna |
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye" |
Posted By: vikaskrishnadas |
"वास्तु टिप्स बताएँ ? " |
Posted By: VAKEEL TAMRE |
""jai maa laxmiji"" |
Posted By: Tribhuwan Agrasen |
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है" |
Posted By: ओम प्रकाश तिवारी |
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