पहला प्रश्न: भगवान! लूं तो कैसे लूं संन्यास? मन में से ईष्या, अहंकार, क्रोध, कुछ भी तो नहीं निकाल पाती। और आप जो बार-बार रात-दिन स्वप्न में सामने रहते हैं! क्या करूं?
मधुरी! मैं रुका था तेरे प्रश्न का उत्तर देने को; जानता था कि संन्यास होगा ही। अब तेरा संन्यास हो गया है, इसलिए उत्तर देता हूं।
प्रश्न तो मधुरी ने पूछा था संन्यास के पूर्व; उत्तर दे रहा हूं संन्यास के बाद। क्योंकि मधुरी कोई अकेली मधुरी तो नहीं। और भी बहुत मधुरियां हैं, जो ऐसी ही दुविधा में, ऐसी ही झिझक, ऐसी ही हिचक में अटकी हैं। न कदम आगे बढ़ाए बढ़ता है, न पीछे लौटने का उपाय है।
पीछे लौटा नहीं जा सकता, क्योंकि सिवाय दुख के वहां और कुछ भी नहीं; गहरी अमावस की रात है। आगे बढ़ने में डर लगता है--अज्ञात का भय, अनजान-अपरिचित मार्ग। पीछे भीड़ है। भीड़ का साथ है। भीड़ की सुरक्षा है। कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई ईसाई। भीड़ में एक तरह का आश्वासन है कि इतने लोग गलत तो नहीं हो सकते।
संन्यास है अकेले होने की घोषणा। संन्यास है इस बात का उदघोष कि मैं अकेला आया हूं, अकेला हूं, अकेला जाऊंगा। सब संग-साथ झूठ है। माया है। ममता है। मोह है। एक भ्रांति है। मन का एक जाल है।
संन्यास का अर्थ है कि जो संसार मैंने बसा लिया है, वह बस भुलावे के लिए, सांत्वना के लिए। ये जो जिंदगी के चार दिन हैं, इन्हें किसी तरह गुजार लेने के लिए। व्यस्तता के लिए। फिर तो मौत आती है और अकेला कर जाती है। जो मौत करती है, वही संन्यास करता है। मौत जबरदस्ती अकेला करती है, संन्यास तुम्हारी स्वेच्छा से अकेले होने की घोषणा है। इसलिए मौत चूक जाती है, क्योंकि जबरदस्ती किसी को बदला नहीं जा सकता।
बदलाहट स्वांतः सुखाय होती है, स्वेच्छा से होती है, स्वस्फूर्त होती है। बदलाहट स्वतंत्रता का फूल है। मौत जबरदस्ती करती है। और जितनी जबरदस्ती करती है, उतने ही तुम जोर से अपने माया-मोह को, अपनी देह को, अपने मन को पकड़ लेते हो--कस कर पकड़ लेते हो। इधर आती है मौत, उतनी ही तुम्हारी आसक्ति बढ़ जाती है। तुम किनारे को और जोर से पकड़ लेते हो कि कहीं तूफान तुम्हें छीन ही न ले जाए।
क्योंकि दूसरा किनारा तो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। वह तो केवल उन्हें दिखाई पड़ता है, जो तूफान को अवसर मानते हैं; जो तूफान में स्वेच्छा से उतर जाते हैं; जो तूफान की प्रतीक्षा करते हैं; जो अपनी नाव का पाल खोले बैठे हैं कि कब आए तूफान और कब हम यात्रा पर निकल जाएं। दूसरा किनारा तो उन साहसी आंखों को दिखाई पड़ता है। दुस्साहस चाहिए, तो ही दूसरा किनारा दिखाई पड़ता है। संन्यास दुस्साहस है। जो मौत नहीं कर पाती, वह संन्यास करता है।