भगवान दयालु हैं। वे शरणागत की रक्षा करते हैं। सच्चे मन से शरणागत हुए भक्त के भावों का वे सम्मान करते हैं।
भगवान इतने दयालु हैं कि पूर्ण रूप से शरणागति के भावों को वे भी समझते हैं। भक्तों में लोकरंजन और दिखावा होता है। इस कारण वे सच्चे मन से प्रभु के सामने शरणागत नहीं हो पाते हैं। जीवों पर कृपा तो भगवान हमेशा करते हैं। लोग दिखावे में फंसे होने के कारण ीक से शरणागत ही नहीं हो पाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते समय में बताया कि चार प्रकार के लोग शरणागत नहीं हो पाते।
* पहले तो वे हैं, जो भगवान को नहीं जानते।
* दूसरे वे हैं, जो हमेशा बुराई किया करते हैं।
* तीसरे वे लोग हैं, जो भगवान को जानते और मानते हैं, मगर शरण में नहीं जाना चाहते।
* चौथे वे लोग होते हैं, जो असुर प्रवृत्ति के होते हैं। इन चारों में कुछ लोग नराधम होते हैं, जो भगवान को जानते तो हैं, मगर उनकी शरण में सच्चे मन से जाना नहीं चाहते।
कुछ लोग भगवान से मन से शरणगति का रिश्ता नहीं जोड़ पाते। इस कारण वे मन से शरण में जाने का काम नहीं करते। भगवान को अपना बनाने के लिए उनके चरणों में मन को सरेंडर करना पड़ता है। शरीर से चाहे चारों धाम घूम आएं, लेकिन अगर मन भगवान के चरणों में समर्पित नहीं है, तो चारों धाम घूमने का भी कोई फल नहीं मिलता, इसलिए भक्त को चाहिए कि मन से शरणागत हो, तभी प्रभु की कृपा होगी।
शरणागति के तीन भाव
* शरणागति के लिए भक्त में सरलता का भाव होना चाहिए।
* हृदय छल-कपट के प्रभाव से मुक्त हो।
* भक्ति में दिखावा और प्रपंच नहीं होना चाहिए।
इन तीनों भावों से उन्मुख हो भक्त अगर भगवान के सामने शरणागत होता है तो उस पर प्रभु की कृपा अवश्य होती है। वहीं तमाम साधनों के बाद भी अगर अहंकार का अंश हो तो शरणागति में बाधा के भाव उत्पन्न होते हैं।