विद्रोह- सत्य का पहला स्वागत ।
दर्पण में वही दिखाई पड़ता है, जो तुम हो।
शास्त्रों में भी तुम्हें वहीं दिखाई पड़ता है जो तुम हो। जिसके हाथ ते शास्त्र पडा उसका ही हो गया।
मोहम्मद के हाथ में जब तक था, तब तक कुरान थी; तुम्हारे हाथ में जब तक आया कुछ का कुछ हो गया।
और फिर तुम्हारे हाथ से भी चलती रही, हजारों साल बीत गये, एक हाथ से दूसरे हाथ में बदलते हुए। किताबें गंदी हो गई है। तुम्हारे हाथ की मैल उन पर जम गई है।
जो उन्हें झाड़े और साफ करे। वही तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन।
ध्यान रहे, इस जगत में प्रत्येक चीज का जन्म होता है और प्रत्येक चीज की मृत्यु होती है।
धर्म तो शाश्वत है।
लेकिन कौन सा धर्म ???
वह धर्म जो जीवन को धारण किए है। वह शाश्वत है।
लेकिन बुद्ध ने जब कहा, कहा शाश्वत को ही, लेकिन जब विचार में बांधा तो शाश्वत समय में उतरा। और समय के भीतर कोई भी चीज शाश्वत नहीं हो सकती।
समय के भीतर तो पैदा हुई है, मरेगी। जन्मदिन होगा, मृत्यु दिन भी आयेगा।
जब कोई सत्य शब्द में रूपायित होता है तो सबसे पहले लोग उसका विरोध करते है।
क्यों ???
क्योंकि उनकी पुरानी मानी हुई किताबों के खिलाफ पड़ता है। खिलाफ न पड़े तो कम से कम भिन्न तो पड़ता है। लोग विरोध करते है।
सत्य का पहला स्वागत विरोध से होता है—पत्थरों से, गलियों से।
सत्य पहले विद्रोह की तरह मालूम होता है। खतरनाक मालूम होता है। बहुत सूलियां चढ़नी पड़ती है सत्य को, तब कहीं स्वीकार होता है।