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समस्या का समाधान

 

जब कोई अपनी समस्या को आपके सम्मुख रखता है, तब वह आप पर ईश्वर के जैसा पूर्ण विश्वास रखता है।

कोशिश करें उसका वह विश्वास बना रहे।                                                                          
उपरोक्त प्राप्त संदेश देखने मे अच्छा लगता है लेकिन इस पर अमल करना उतना ही मुश्किल।
इसके लिये आत्मस्थिति चाहिए।आदमी स्थायी रुप से रुका हुआ रहे अपनी जगह अपने आपमें तथा वह आगंतुक समस्या ग्रस्त व्यक्ति को अपने आपमें समाहित कर लेने मे सक्षम हो।
दोनों एक ही बात है।जगत खुद का ही प्रक्षेपण है।रुकने पर यह वापस खुद मे विलीन हो जाता है।गीता रुकने पर जोर देती है अभ्यास तथा वैराग्य से।रागद्वेष रुकने नहीं देते।उनके कारण चित्त दूसरों पर केंद्रित, दूसरों पर निर्भर रहता है पर दूसरा कौन है?आदमी ही खुद और दूसरे मे बंटा हुआ है।इसीलिए कहा जाता है-दूसरे को देना,खुद को देना है।(श्रीरमणमहर्षि)

यह सूक्ष्म बात है।इसे स्थूल दृष्टि से भी देखा जा सकता है।
आजकल दूसरों के सामने अपनी समस्या रखने की प्रवृत्ति घट गयी है क्योंकि दिल मे रहता है-कहने से क्या होगा,कोई मदद करने वाला नहीं है।
कोई दयालु जैसा लगताहै तो उसे कहा जाता है।वह विश्वास रखने जैसा लगता है।
संदेश है वह आप भी हो सकते हैं।आप हैं तो आपमें कुछ चीजें आधार रुप से मौजूद रहनी चाहिए।एक बात तो स्पष्ट है-आप उसे ठुकरायेंगे नहीं, मुख नहीं मोडेंगे,आनाकानी नहीं करेंगे,सहयोग के लिये तत्पर रहेंगे।इसके लिये मौके ढूंढने की जरूरत नहीं है।अवसर सहज ही प्राप्त होते रहते हैं।कल मै मावली से नाथद्वारा आ रहा था तो बस मे एक अति बूढी स्त्री चढी।उसे देखकर एक युवक तत्काल खडा हो गया और उसे बैठने दिया।दो तीन स्टोप बाद वह उतर गयी तो वह युवक वापस बैठ गया।मेरा ध्यान गया।उसने वृद्धा की आशा को पूरा किया कि कोई उसे बैठने की जगह दे देगा।
ये रोजमर्रा की चीजें हैं।हां।अगर कोई कठिन समस्या लेकर आया हो आपके पास तो अलग बात है।वैसे कठिन समस्या कहीं होती नहीं।सब अपने स्वभाव, संस्कार पर निर्भर है लेकिन किसी को यह बात समझ मे नहीं आती,न कोई समझना चाहताहै।ऐसे मे स्थूल और बाहरी चीजों को ही अपनी समझ का आधार बनाना पडता है जिसे सामान्य बोध,साधारण बुद्धि या व्यावहारिक ज्ञान(कोमन सेंस)कहा जाता है।

यही मानव समाज है।मदद करो मदद पाओ।सहयोग करो सहयोग पाओ यही इसकी बुनियाद है।अब अगर आदमी इतना स्वार्थी हो जाये कि मदद करने मे कोई विश्वास नहीं रखता हो,केवल मदद पाने पर ही भरोसा रखता हो तो उसे छोटी बातों मे भी निराश होना पड सकता है,कठिन समस्याओं मे सहयोग पाना तो बहुत दूर की बात है।
अतः इसे स्वार्थ न कहें,मानव समाज की एक सहज स्वाभाविक जरूरत और पूर्ति की बनावट या ढांचे के रुप मे लें
तो यह स्पष्ट ह़ो सकताहै कि सहयोग देने-पाने,सहायता करने-प्राप्त करने मे कोई हर्ज जैसी फिक्र करने की चीज नहीं है।
तब यह स्थिति उत्पन्न न होगी कि कोई समस्या ग्रस्त व्यक्ति आप पर ईश्वर जैसा पूर्ण विश्वास रखकर सहायता की उम्मीद लेकर आपके पास आयेगा और आप किसी हालत मे उसे ना उम्मीद न होने देंगे।
यह ईश्वर की वाणी है-सुहृदं सर्वभुताना ज्ञात्वा मां शांतिमृच्छति।
ईश्वर को अकारण हित करने वाला, जानने वाले को शांति हो जाती है।
हमारी यह समस्या है कि हम छोटेमोटे कष्ट सह नहीं पाते और उससे मुक्ति पाने के लिये ईश्वर से अपेक्षा करते हैं और संशय भी रखते हैं कि क्या पता ऊपरवाला सुनेगा भी या नहीं?जबकि वह सतत संसार को समझकर समता की सामर्थ्य बढाने के लिये प्रेरित करता रहता है।वैसे भी कई बार कठिनाईयां आदमी को और अधिक मजबूत बना देती हैं।आदमी आरामपसंद है त़ो यह इस दुनिया मे चलने वाला नहीं है।व्यावहारिक ज्ञान(कोमन सेंस)यही कहता है-मजबूत बनो,कमजोर नहीं।अपने भीतर कमजोरी को ढूंढ ढूंढ कर दूर करो।दूसरे की पीडा समझो।उसकी सहायता करो।तब आपकी भी सहायता की जायेगी।

मददगार की मदद करने के लिये अनेक लोग तैयार हो जाते हैं।स्वार्थी आदमी को सब ठुकराते हैं।स्वार्थी आदमी भूल जाता है कि वक्त आने पर उसे भी मदद की बडी जरूरत हो सकती है लेकिन उसने वातावरण अपने खिलाफ बनाकर रखा है।ऐसे मे वह मदद की आशा लेकर किसीके पास गया तो भी निराश नहीं होना पडेगा जब अगला आदमी उसके जैसा नासमझ नहीं है।

अतः जरूरी है कि एक ही नहीं अपितु हर आदमी सही समझ से पूर्ण हो।छोटेबडे,अच्छे बुरे की रागद्वेष पूर्ण भेददृष्टि मे नही जाए।सभी लोग एक जैसे हैं।सभी की जरुरतें एक जैसी हैं।

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