श्रीमद्भागवत किताब नहीं है, ग्रंथ भी नहीं साक्षात कृष्ण है। श्रीमद्भागवत में भगवान कृष्ण की वाणी है, जो सुनाई जाती है और लोग सुनते हैं।
बडे-बडे मनीषियोंने भागवत की कथाओं को सुना है। जो जितना उच्च कोटि के वक्ता हैं, उनकी तुलना में उच्च कोटि के श्रोता भी होने चाहिए। भागवत में सत, चित्त, आनंद का वर्णन है। भगवान की कृपा के बिना न भागवत कथा कहना संभव है और न सुनना संभव है। आनंद ही तो परमात्मा है।
तीन प्रकार के तप तथा तीन प्रकार के पाप हैं। इसके विनाश के लिए हमें भगवान कृष्ण का शरणागत होना पडता है। हमें भगवान से यही मानना चाहिए कि मन, वचन, कर्म तीनों में एक हो जाए। जो मन में सोचते हैं उसे ही वाणी से बोलें तो अपने आप की महत्ता है। इस संसार में सब कुछ होते हुए यदि मन मेशांति नहीं है तो सब कुछ बेकार हो जाता है। भगवान के सामने अपनी उपलब्धियों को गिनाना नहीं चाहिए। कर्म के अनुसार ही मानव धन्य हो जाता है। भगवान की कृपा काफी क िन है। जिस पर उनकी कृपा हो जाती है, वे धन्य हो जाते हैं। यह जीवन क्षणभंगुर है। एक क्षण भी जीवन पर भरोसा नहीं करना चाहिए।
काल रूपी सांप के ग्रास के लिए जीवन तैयार रहता है। इससे बचने का एकमात्र उपाएभगवत भजन है। लोग कहते हैं कि भगवत भजन के लिए समय ही नहीं मिलता। धनोपार्जन के लिए जीवन अर्पित कर देना ही महा गलती है।