संन्यास उस चित्त में ही अवतरित होता है, जिसके लिए कि ईश्वर ही सब कुछ हो। जहाँ ईश्वर सब कुछ है, वहाँ संसार अपने आप ही कुछ नहीं हो जाता है।
किसी फकीर के पास एक कंबल था। उसे किसी ने चुरा लिया है। फकीर उठा और पास के थाने में जाकर चोरी की रिपोर्ट लिखवाई।
उसने लिखवाया कि उसका तकिया, उसका गद्दा, उसका छाता, उसका पाजामा, उसका कोट और उसी तरह की बहुत सी चीजें चोरी हो गई है।
चोर भी उत्सुकतावश पीछे-पीछे थाने चला आया। सूची की इतनी लम्बी-चौड़ी रूपरेखा देखकर वह मारे क्रोध के प्रकट हो गया, और थानेदार के सामने कंबल फेंककर बोला।
बस यही, एक सड़ा गला कंबल था -- इसके बदले इसने संसार भर की चीजें लिखा डाली।
फकीर ने कंबल उठाकर कहा -- आह, बस यही तो मेरा संसार है।
फकीर कंबल उठाकर चलने को उत्सुक हुआ तो थानेदार ने उसे रोका, और कहा कि रिपोर्ट में झूठी चीजें क्यों लिखवायी?
वह फकीर बोला -- नहीं, झूठ एक शब्द भी नहीं लिखवाया है। देखिए, यही कंबल मेरे लिए सब कुछ है -- यही मेरा तकिया है, यही मेरा गद्दा है, यही मेरा छाता है, यही पाजामा, यही कोट है।
बेशक, उसकी बात ठीक ही थी।
जिस दिन ईश्वर भी ऐसे ही सब कुछ हो जाता है -- तकिया, गद्दा, छाता, पाजामा, कोट -- उसी दिन संन्यास का अलौकिक फूल जीवन में खिलता है।