दो0- भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ।। 10 ।।
त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ।।
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ।।
सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ।।
खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ।।
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ।।
नगर फ़िरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि प ाई ।।
यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ।।
तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के चरनन्हि परीं ।।