दो0- तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ।। 40 ।।
बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ।।
सुनत दसानन उ ा रिसाई । खल तोहि निकट मृत्यु अब आई ।।
जिअसि सदा स मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ।।
कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं ।।
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । स मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ।।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ।।
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ।।
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ।।