दो0- पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।
अति लघु रुप धरौं निसि नगर करौं पइसार ।। 3 ।।
मसक समान रुप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ।।
जानेहि नहीं मरमु स मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ।।
मु िका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ।।
पुनि संभारि उ ी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ।।
जब रावनहि ब्रह्य बर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ।।
बिकल होसि तैं कपि के मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ।।
तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ।।