दो0- जनक सुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह ।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ।। 27 ।।
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी । गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी ।।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलिकिला कपिन्ह सुनाव ।।
हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ।।
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ।।
मिले सकल अति भए सुखारी । तलफ़ल मीन पाव जिमि बारी ।।
चले हरषि रघुनायक पासा । पूँछत कहत नवल इतिहासा ।।
तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद संमत मधु फ़ल खाए
रखवारे जब बरजन लागे । मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ।।