दो0- श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ।। 45 ।।
अस कहि करत दंडवत देखा । तुरत उ े प्रभु हरष बिसेषा ।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ।।
अनुज सहित मिलि ढिग बै ारी । बोले बचन भगत भय हारी ।।
कहु लंकेस सहित परिवारा । कुसल कु ाहर बास तुम्हारा ।।
खल मंडली बसहु दिनु राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ।।
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नय निपुन न भाव अनीती ।।
बरू भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधता ।।
अब पद देखि कुसल रघुराया । जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ।।