दो0- प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।
गएँ सरन प्रभु राख्रिहैं तव अपराध बिसारि ।। 22 ।।
राम चरन पंकज उर धरहू । लंका अचल राजु तुम्ह करहू ।।
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ।।
राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषन भूषित बर नारी ।।
राम बिमुख संपति प्रभुताई । जाइ रही पाई बिनु पाई ।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं । बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाही ।।
सुनु दसकं कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ।।
संकर सहस बिष्नु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ।।