दो0- राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ।। 36 ।।
श्रवन सुनी स ता करि बानी । बिहसा जगत बिदित अभिमानी ।।
सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ।।
जौं आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ।।
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ।।
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ।।
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ।।
बै ेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ।।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहु । ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ।।
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं । नर बानर केहि लेखे माही ।।