दो0- कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ।। 20 ।।
कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहि कें बल घालेहि बन खीसा ।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक स तोही ।।
मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु स मोहि न प्रान कइ बाधा ।।
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचति माया ।।
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा।।
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन ।।
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह से स न्ह सिखावनु दाता ।।
हर कोदंड क िन जेहिं भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ।।
खर दूषन त्रिसिरा अरू बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ।।