दो0- निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ।। 15 ।।
जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ।।
राम बान रबि उएँ जानकी । तम बरूथ कहँ जातुधन की ।।
अकहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ।।
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ।।
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधन अति भट बलवाना ।।
मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ।।
कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ।।
सीता मन भरोस तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ।।