सुन्दरकाण्ड - सुन्दरकाण्ड
भाग - 47

दो0- तब नगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम ।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धम तजि काम ।। 46 ।।

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना । लोभ मोह मच्छर मद माना ।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा । धरें चाप सायक कटि भाथा ।।
ममता तरून तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी ।।
तब लगि बसति जीव मन माहीं । जब नगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ।।

अब मैं कुसल मिटे भय भारे । देखि राम पद कमल तुम्हारे ।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला । ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ । सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ।।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा । तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ।।

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