दो0- रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड ।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ।। 49 ;कद्ध ।।
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ।। खद्ध ।।
इस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना । ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ।।
निज जन जानि ताहि अपनावा । प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ।।
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी । सर्बरूप सब रहित उदासी ।।
बोले बचन नीति प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ।।
सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ।।
संकुल मकर उरग झष जाती । अति अगाध दुस्तर सब भाँती ।।
कह लंकेस सुनहु रघुनायक । कोटि सोषक तव सायक ।।
जद्यपि तदपि नीति असि गाई । बिनय करिअ सागर सन जाई ।।