दो0- हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरूत उनचास ।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ।। 25 ।। ।।
देह बिसाल परम हरूआई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ।।
जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ।।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा । एहिं अवसर को हमहि उबारा ।।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रुप धरें सुर कोई।
साधु अवग्या कर फ़लु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा ।
जारा नगरू निमिष एक माहीं । एक बिभीषन कर गृह नाहीं ।।
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ।।
उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी