दो0- बातन्ह मनहि रिझाइ स जनि घालसि कुल खीस ।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ।। ।।
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग ।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ।। 56 ।।
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई । कहत दसानन सबहि सुनाई ।।
भूमि परा कर गहत अकासा । लघु तापस कर बाग बिलासा ।।
कह सुक नाथ सत्य सब बानी । समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ।।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा । नाथ राम सन तजहु बिरोधा ।।
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ।।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही । उर अपराध न एकउ धरिही ।।
जनकसुता रघुनाथहि दीजे । एतना कहा मोर प्रभु कीजे ।।
जब तेहिं कहा देन बैदेही । चरन प्रहार कीन्ह स तेही ।।
नाइ चरन सिरू चला सो तहाँ । कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ।।
करि प्रनामु निज कथा सुनाई । राम कृपाँ आपनि गति पाई ।।
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी । राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ।।
बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ।।