दो0- जहँ तहँ सकल तब सीता कर मन सोच ।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ।। 11 ।।
त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ।।
तजौं देह करू बेगि उपाई । दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ।।
आनि का रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहि लगाई ।।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनै को श्रवन सुल सम बानी ।।
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ।।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी ।।
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ।।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ।।
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी । मानहुँ मोहि जानि हतभागी ।।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करू हरू मम सोका ।।
नूतन किसलय अनल समाना । देहि अगिनि जनि करहि निदाना ।।
देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कलप सम बीता ।।