दो0 - राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ।। 2 ।।
निसिचर एक सिंधु महुँ रहई । करि माया नभु के खग गहई ।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ।।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ।।
ताहि मारि मारूतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ।।
नाना तरु फ़ल फ़ूल सुहाए । खग मृग बृंद देखि मन भाए ।।
सैल बिसाल देखि एक आगें । ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ।।
उमा न कछु कपि कै अधिकाई । प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ।।
गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ।।
अति उतंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोट कर परम प्रकासा ।।
छं0- कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना ।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै ।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ।। ।।
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रुप मुनि मन मोहहीं ।।
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं ।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं ।। ।।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ।
कहुँ माहिष धेनु खर अज निसाचर भच्छहीं ।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही ।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सहि ।। ।।