दो0- एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर ।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ।। 35 ।।
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब तें जारि गयउ कपि लंका ।।
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ।।
जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ।।
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ।।
रहसि जोरि कर पित पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ।।
कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहू ।।
समुझत जासु दूत कइ करनी । स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी ।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई । प वहु कंत जो चहहु भलाई ।।
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई । सीता सीत निसा सम आई ।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ।